ये सब मानव को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने को रचे गए थे। आज भी जब कोई कष्ट पाता है, या गरीब है तो उसे तसल्ली देने को कह देते हैं कि भई पूर्वजन्म का फल है जो भोग रहे हो। यदि सुखी है, अमीर है तो भी यही जवाब है कि पूर्वजन्म में अच्छे कर्म किए होंगे उसी का फल है।
न कोई पूर्वजन्म है न होगा। मरने के बाद भी पुनर्जन्म या किसी चौरासी लाख योनि-चौरासी लाख- में पड़ना कि अच्छा कर्म किया तो अच्छी योनि का, बुरा कर्म किया तो बुरी योनि। ये सब ऐसे ही है जैसे बालक से कोई काम कराना हो या उसे सुलाना हो तो कहते हैं – हौआ आया या तुझे भूत पकड़कर ले जाएगा इत्यादि-इत्यादि। यदि किसी को विशेषकर हिन्दु धर्म के अनुयायिओं को कर्मजन्य फल अगले जन्म में भोगने या खराब योनि में पड़ने का भय न हो तो शायद अपराध करने से इतना नहीं घबराएँगे।
यही विचार रहा होगा प्राचीन ऋषियों व ज्ञानियों का। पहले ध्येय रहा आत्मिक उत्थान का। कैसे मानव अपने जीवन को सरल व सुखद बनाए। अपनी भावनाओं व शक्तियों का विकास करे। अपनी शक्ति का अपव्यय भौतिक सुख जुटाने, ईर्ष्या क्रोध द्वेष जैसे उद्वेगों में न करें, क्रियात्मक रचनात्मक कार्यों में लगाए। क्रियात्मक रचनात्मक कार्यों में लगाने से क्या होगा?
सम्पूर्ण मानवता का उत्थान होगा पर इतनी बड़ी बात जो पूर्ण होने में शायद हज़ारों साल लगें। इतनी बड़ी दूरदर्शिता की बात साधारण मानव की समझ में कहाँ आती है। तो उसकी बुद्धि अनुसार यही कहा गया कि अच्छे कार्य करो भगवान मिलेंगे। अगला जन्म सुधरेगा। यदि इस जन्म में उसको फल न मिला और असंतुष्ट होकर प्रश्न किया तो अगले जन्म का लालच दिखा दिया ताकि उस समय उसकी जिज्ञासा शान्त हो जाए। अगला-पिछला जन्म सब छलावा है और धर्म जो पुनर्जन्म नहीं मानते क्या कम उन्नत हैं। जैसे-जैसे उत्थान होता है, नए-नए तथ्य सामने आते रहते हैं जो कि मानव के लिए अत्यावश्यक हैं।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ