एक प्रश्न पूछ रहा प्रणाम

हे मानव !

तू किसे पूजता है तेरा आराध्य या ईष्ट कौन है किसे याद करता है फूल-पत्र, भोग व प्रसाद चढ़ाता है कहाँ मुसीबत में भेंट प्रार्थना व अर्चना करता है भजन कीर्तन करता है।

तू जिसके लिए यह सब करता है और गर्व से कहता है कि मैं तो अमुक-अमुक को गुरु मानता हूँ, अमुक-अमुक देवी देवताओं का भक्त हूँ तो फिर तेरा समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है। क्यों इधर-उधर भागता है कि तेरी समस्याओं का समाधान और उल्टे-सीधे अज्ञानतापूर्ण प्रश्नों के उत्तर मिल जाएं। ज्योतिष वास्तु या कोई कष्ट निवारक ही मिल जाए, कुछ नगों मंत्रों या अन्य उपायों से चमत्कार हो जाए। ये सब बाहरी फैलाव या भागदौड़ क्यों, दिमागी जोड़-तोड़ क्‍यों ।

क्यों जब तेरा जहाँ से जी चाहे वहीं से तुझे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाएं, मुसीबतें या सांसारी कष्टों का नाश हो जाए। ऐसी शब्दों की बौछार हो जाए जिसमें तू अपनी बुद्धि से मतलब की बात निकाल कर बाकी आराम से भूल जाए।

पूजा तू तो अपने ईष्ट की करता है और समाधान के लिए बाहर लोगों का समय दिमाग चाट-चाट कर बर्बाद करता है। यदि तेरी अपने ईष्ट में इतनी भी आस्था नहीं कि सभी कुछ वहीं से ही मिलेगा तो तू अपने को आस्था के ढोंग से क्यों ठग रहा है। क्यों तेरा समर्पण अधूरा है। देवी-देवता या भगवान मानना उन्हें यांत्रिक विधि से पूजना केवल थोड़ी देर के लिए ये सब संतुष्टि या तृप्ति पाने की उस गोली के समान है जो रोज दर्द मिटाने के लिए प्रयोग की जाती है।

जिससे प्रश्नों की पूर्ण संतुष्टि मिले, अंधकार कटे, मार्गदर्शन मिले वहीं भगवान ईष्ट गुरु या अवतार होता है और अवतार तो स्वयं उदाहरण स्वरूप होता है जिसे कोई अर्जुन जैसा चैतन्य ही समझ पाता है। जहाँ से भी ज्ञान व संतुष्टि प्राप्त हो चाहे वो मां-बाप, भाई-बहन या कोई भी मनभावन सच्चा इंसान हो कहीं तो आस्था को पूर्णतया स्थापित कर । निराकार में आस्था है तो वहीं उसे दृढ़ रख। उसी का ध्यान सदा कर । जहाँ ध्यान व आस्था सतत्‌ प्रवाहित हो वहीं परम्‌ प्रकाश होता है उसी के निर्देश संदेश व वाणी को ब्र॒ह्मास्त्र जान कर पूर्णतया समर्पित हो। ईष्ट या गुरु केवल एक ही होता है इधर-उधर मन भटकाना केवल भटकाव ही देगा।

दुविधा या शंका करने का अर्थ है तेरा अपने में ही विश्वास नहीं अच्छे इंसान में विश्वास नहीं । तेरा अहम तुझे सत्य के प्रकाश से कभी भी आलोकित न होने देगा। जहाँ थोड़ी भी संतुष्टि हो या मन को ठीक लगे चाहे कोई पुस्तक ही क्यों न हो वहीं पूर्ण समर्पण करने की तपस्या कर, साधना करके अपने में स्थित हो जा। सभी कुछ वहीं से ही मिलेगा। नहीं तो “दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम” यही हाल होगा।

लोभ से भक्ति नष्ट

चाहे गुरु कृपा का लोभ हो

क्रोध से स्मृति नष्ट

चाहे अपने ऊपर ही क्रोध आया हो

प्रेम पवित्रता बहाता है मोह मांगता है

प्रेम त्यागता है

पूर्ण समर्पित भक्त का

कभी भी अकल्याण

या पतन नहीं होता

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