कोई भी कल्पना निरर्थक नहीं होती

मानव जो भी कल्पना करता है वह सत्य ही होती है। मानव में कल्पनाशक्ति ब्रह्माण्ड, सृष्टि, की दी हुई है और मानव ब्रह्माण्ड की ही अनुकृति है ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ यह भी सत्य ही है।

जो भी कल्पना में आ जाता है वो या तो घटित हो चुका होता है या घटित हो रहा होता है या कहीं घटने वाली घटना की पूर्व सूचना होता है। कल्पना को बखान पाना या उनका रहस्य जान पाना साधारण मानव बुद्धि से परे है।

कल्पनाओं को ही कुछ पुरुषार्थी मानव सत्य संकल्प जान कर उन पर पूरी शक्ति केन्द्रित कर ध्यान लगाकर निरन्तर कर्म कर नए-नए आविष्कार कर लेते हैं साहित्य रच लेते हैं, अनमोल कलाकृतियाँ बना लेते हैं जो चमत्कारों की श्रेणी में आते हैं। वैज्ञानिकों लेखकों कलाकारों आदि-आदि यहाँ तक कि युगदृष्टाओं के उत्थान का आधार भी कल्पना ही होता है।

जब से सृष्टि बनी तब से अब तक जो भी घटित हुआ वो सूचनाएँ मानव के कोषाणुओं, Cells, में संचित रहती हैं। वो सब कभी-कभी उभरकर कल्पना के रूप में अंगड़ाइयाँ लेने लगती हैं। जब मानव शान्तावस्था या विश्रामावस्था में होता है तो मस्तिष्क में विचार कल्पनाओं का रूप ले मन को अनोखा आनन्द देते हैं। आलसी मानव उनका आनन्द चखने के लिए बार-बार कल्पनाओं में रमता है और उन्हें दिवास्वप्नों का रूप दे देता है। इनका सही प्रयोजन समझकर इनका सदुपयोग कोई विलक्षण प्रतिभासम्पन्न मानव ही कर पाता है। या यूँ कहा जाए कि इसका उपयोग मानव की अपनी व्यक्तिगत ट्यूनिंग, Tuning, पर निर्भर होता है। कई बार उदाहरण मिलते हैं कि कैसे किसी ने एक जगह बैठे-बैठे ही कहीं दूरस्थ स्थान पर घटने वाली घटना खुली या बंद आँखों से दिव्य दृष्टि से एकदम स्पष्टता से अवलोकन कर ली। यह सब असाधारण रूप से विकसित व पूर्णतया संवेदनशील कल्पनाशक्ति का ही तो परिणाम होती है।

जिसने अपने सारे कोषाणु, Cell, प्रकाशित कर लिए हो, महात्मा बुद्ध की तरह सतत ध्यान साधना से। कोषाणु प्रकाशित, Enlightenment, होने का अर्थ है सभी पुरानी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों व संचित कर्मों से निवृत्ति पा लेना। तो ऐसा व्यक्ति जो भी कल्पना करेगा कि दस हजार साल पहले क्या हुआ या अब क्या हो रहा है और दस हजार साल बाद क्या होगा। वो सब सच ही होता है। यही सत्य है और इस सत्य को प्रणाम से अच्छा कौन जानेगा। प्रत्येक स्वत: प्राप्त ज्ञान, समय से पहले बताने पर हँसी उड़ाई जाती है।

इसलिए प्रत्येक ‘भाव’ प्रणाम में सरस्वती माँ की असीम अनुकम्पा से लिपिबद्ध हो रहा है क्योंकि प्रणाम जानता है कि यही सत्य है। प्रणाम का पूर्ण विश्वास कि वो समय शीघ्र ही आएगा जब सब इनका सत्य जानकर, मानव की क्षमताओं की असीमितता व अनन्तता जानकर अपनी सारी क्षमताओं को पूर्णता देने की प्रेरणा से प्रेरित हो कर्मरत होंगे।

मानव इसी सत्य के लिए तो अवतरित हुआ है। धरा पर आया है प्रभुता पाने को, समस्त ब्रह्माण्ड व सृष्टि का एकत्व अनुभव करने को। सब बात तो एकत्व की करते हैं पर यह बात क्यों समझ नहीं आती कि सबके मन-मस्तिष्क ब्रह्माण्डीय बोधि व चेतना से भी तो एकाकार हैं, जुड़े हैं और सूचना तरंगें निरन्तर आती-जाती रहती हैं। पर कुछ मानव-मस्तिष्क जान जाते हैं, कुछ नहीं। कुछ केवल थोड़े समय के लिए संयुक्त होते हैं फिर अलग होते रहते हैं। यह क्रम चलता रहता है कृतित्व के समय और संसार में अपने गुन खेलने के समय। ऐसा जिनके साथ होता है वो अधिकतर लेखक वैज्ञानिक कलाकार आदि होते हैं। पर कुछ विरले मानव ऐसे भी होते हैं जो सदा के लिए जुड़ जाते हैं उनका परम सत्य से ‘योग’ होकर परम विलय, Supreme merging, हो जाता है। ऐसे मानव युगदृष्टा, मार्गदर्शक व महात्मा होकर युगचेतना के ‘प्रवक्ता’ हो जाते हैं। इस धरती पर पूर्ण मानव का धर्म उदाहरण बन प्रसारित करते हैं, प्रकाश फैलाते हैं। वो सच्चेे मानव होते हैं और मानवता का कल्याण चाहते हैं। इसी ‘कारण’ हेतु मानवों को सत्य बताते व समझाते हैं कि कैसे अपना उत्थान करना है और मानव जीवन में आईं या आने वाली दुविधाओं शंकाओं और भ्रांतियों से कैसे बचा जा सकता है। किस प्रकार सभी व्याधियों या व्यवधानों से उबरकर प्रकाशित होकर ‘परम चेतना’ से जुड़कर अपना-अपना सत्य व वास्तविकता जानकर मानव होने का पूरा आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। ब्रह्माण्ड के व मानव अस्तित्व के सभी रहस्यों को जानकर सभी प्रश्नों से मुक्त होकर जीवन जीवन्तता से जीते हुए भी ‘मुक्तात्मा’ हुआ जा सकता है।

यही है कल्पनाओं का सौन्दर्य। कल्पनाओं को ‘ध्यान’ में परिवर्तित कर उनसे प्राप्त संदेशों व निर्देशों को दृढ़संकल्पों में ढाल कर उन पर पूर्ण मनोयोग से ‘कर्म’ कर ज्ञान और विवेक का मोती चुनना मानव के मानस के हंस का सच्चा खेल है। इस धरा पर सत्यम् शिवम् सुन्दरम् संसार रचने का माध्यम है। तो आओ, पहले कल्पना तो करें कि धरती पर स्वर्ग कैसे बने, कैसे हो वसुधैव कुटुम्बकम्, कैसे हो सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश प्रसारा, कैसे हो मानव मानव को प्यारा जो करे जगत उजियारा। यही वैदिक सत्य तो है मार्गदर्शक हमारा। भारतीय संस्कृति का केन्द्र बिन्दु न्यारा।
यही है सत्य
यहीं है सत्य

  • प्रणाम मीना ऊँ

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