डेमोक्रेसी का पर्याय बन गया है दे मोहे कुर्सी। भारत के सम्मान की और भारतीयता की प्राण सत्यम् शिवम् सुंदरम् वाली संस्कृति की किसी को भी चिंता नहीं है। कृष्ण के कर्मयोग के पाठ की जगह आलस्य और कर्महीनता अपनी जड़ें जमा चुके हैं। आज जो तहलका मचा है। तहलका की गतिविधियों से उससे भ्रष्टाचार व्यवस्था के सुनियोजित तथा नियमित रूप से चलने की प्रक्रिया पर सत्यता की मोहर तो लगी ही है पर एक बात स्पष्टï है इससे राष्ट्र हिल गया है।
ऐसे काम तो करीब-करीब सभी राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थानों पर सुचारु रूप से चल रहे हैं। जाने-अनजाने हम सब इसके भागीदार हैं। देखकर भी नासमझ बने बैठे हैं। अगर आज एक विभाग का नकाब हटा है तो यह सागर में बूँद बराबर है। हर जगह कुर्सी या गद्दी चाहिए- माइट इज राइट, ताकि कुर्सी की शक्ति का प्रयोग अपने-अपने स्वार्थों व हितों को सिद्ध करने में लगाया जाए। राष्ट्रीय हित जाए भाड़ में। यहाँ तक कि राष्ट्र पर जब कोई प्राकृतिक आपदा, बाहरी संकट या अंदर ही कोई कष्ट आता है भाई-भाई लड़ता है तो उसमें भी किसी का क्या लाभ हो सकता है इसी सोच को पूरा करने में सारी शारीरिक और मानसिक शक्ति लगा दी जाती है और राजनैतिक व आर्थिक शक्ति तो कुर्सी के बल पर मिल ही जाएगी।
कौन नहीं जानता धार्मिक स्थलों के गुरु महंतों की गद्दियाँ, धर्म के नाम पर कैसी कैसी राजनीति की शिकार हैं। राजाओं के सिंहासनों को भी मात देने वाली शोभायुक्त कुर्सियाँ, सजे रथ, सवारियाँ और भी दुनिया भर के तामझाम क्या नहीं हो रहा धार्मिकता के नाम पर।
सामाजिकता के नाम पर शादी-ब्याह, तीज-त्यौहारों, जन्मदिनों पर अपनी-अपनी कुर्सी और सामर्थ्य के हिसाब से अंधाधुंध खर्च किए जाते हैं। राजनीति के नाम पर कुर्सी खरीदने के लिए पैसा बहाने से लेकर सरकारी तंत्र प्रयोग की मानसिकता से कौन परिचित नहीं है। सब अच्छी तरह जानते हैं अगर आज तहलका ने यह बात हमें आईना दिखाकर याद दिलाई है तो कितना घिनौना चेहरा हो गया है भारत के सपूतों का, हम सबका। जो लिप्त हैं उनका क्षोभ से और जो देख-सुन रहे हैं उनका घृणा और विक्षोभ से।
तहलका से जो राष्टï्र की छवि को धब्बा लगा उससे हमें सबक लेना ही होगा। राष्टï्र का स्वास्थ्य सही करने का सत्य प्रण करना ही होगा न कि तहलका को भी एक मुद्दा बना करके कि इससे किसका और कितना लाभ होता है? क्या स्वार्थ सिद्ध होता है इसी उधेड़बुन में लगा जाए।
इस हमाम में तो सारे ही नंगे हैं। अब समय है आत्ममंथन और चिंतन का, न कि एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का, ज़रा-ज़रा सी बात पर संसद का काम ठप्प होता रहता है। संसद के बाहर संसद के अंदर, सड़कों पर सब जगह बस दे मोहे कुर्सी, दे मोहे कुर्सी, आगजनी सिरफुटौव्वल नुकसान तो राष्ट्र का ही होता है और जनता ही उसे भरेगी। बस बहाना चाहिए सरकार गिराओ, सरकार चलती कम है गिरती ज्यादा है चलाने की युक्तियाँ कम हैं गिराने की युक्तियाँ ज्यादा हैं। बार-बार चुनाव, हर बार कुर्सी हथियाने के नए नए हथकंडे अपनाए जाते हैं। असंतुष्टों की अलग अलग बीसियों पार्टियाँ बन जाती हैं। अरे भई, असंतुष्ट कैसे संतुष्टि देंगे राम ही जाने।
तहलका का इतना तहलका मचा देने की क्या जरूरत है। शालीनता से भी तो सब काम हो सकता है। अपने अच्छे कार्यों से अपनी पार्टी की छवि बढ़ाने के बजाय सब एक दूसरे पर दोषारोपण कर कुर्सी छीनने के उपाय ही ढूँढ़ते रहते हैं।
भारतीयता व राष्ट्रीयता जैसे शब्दों का मर्म कहीं खो गया है। जो इन शब्दों का महत्व जानते हैं और देश के प्रति समर्पित जीवन जी रहे हैं उनको तो अधिकतर कुर्सी से दूर ही रखा जाता है या वे खुद ही भ्रष्ट व्यवस्था के भागीदार नहीं बनना चाहते। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था इतनी व्यवस्थित है कि उसमें वे कुछ लोग अजीब-सा ही अनुभव करेंगे।
हर व्यक्ति जो कुर्सी पर बैठा है बेईमान ही है ऐसा भी नहीं है पर कुर्सी को चारों ओर से घेरे लोग ऐसा घेरा बना लेते हैं कि सत्य के प्रति समर्पित कर्मठ लोग वहाँ पहुँच ही नहीं पाते। कोई साधन नहीं सच से सच मिलने का। पूरा प्रयत्न किया जाता है कि सत्य-सत्य तक न पहुँचे।
पत्रकारिता भी इससे कहाँ बची है अच्छे सच्चे लोगों को बढ़ाने वाले भी निशक्त हैं क्योंकि सच्चे कर्मयोगियों के पास आर्थिक बैसाखियाँ नहीं हैं। सब लोग अपने-अपने गिरेबानों में झाँको तो ज़रा, एक-दूसरे को रुपयों का चेक समझ भुनाने के चक्कर में क्यों पड़ते हो। पैसे को मैं नकारती नहीं पर दाल में नमक तो ठीक लगता है पर नमक में दाल का स्वाद क्या होगा, जरा सोचो?
अभी भी सारी शक्ति, किसके पीछे कौन है, यह देखने में ही लगाने का क्या लाभ? इस प्रहार प्रतिहार में ही समय नष्टï किया जाता है। देश के कर्णधार ही कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ रहे हैं तो देश की जनता को क्या शान्ति का पाठ पढ़ाएँगे। सारी व्यवस्था ही मलिन है सारी मानसिकता ही भ्रष्टï है। अब समय नहीं है व्यक्तिगत झगड़ों और स्वार्थों की लड़ाई में समय व शक्ति गंवाकर राष्ट्र को और ज्यादा खोखला कर नीचे गिराने का।
अब समय आ गया है कि राष्ट्र भक्ति जगाई जाए और मिलजुल कर राष्ट्र निर्माण का कार्य किया जाए न कि मिलजुल कर खाने-पीने का धंधा बनाया जाए। तहलका ने बुरा किया या अच्छा या कौन आगे है कौन पीछे, यह सब गौड़ बातें हैं क्योंकि तहलका ने छुपे सत्य को उजागर किया है एक चावल का दाना देखकर पूरे भगौने का हाल पता लग जाता है। सत्य उजागर हुआ यह समझना ही जरूरी है न कि अब इसमें भी अपने हित के मुद्दे ढूँढ़ना और उसके लिए सारी न्याय व कानून व्यवस्था के दाँवपेंच खेलना समस्या का हल नहीं। गलत लोगों को सज़ा मिले, सफाई कार्यक्रम सच्चाई से चलाया जाए उसके लिए सबको सच्चा होना पड़ेगा।
राष्ट्रीय मंचों से जुड़े लोगों ने मंचों का क्या हाल बना रखा है। राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं बौद्धिक संस्थान जो अपने हितों के लिए पैसे के बल पर मंचों की व्यवस्था तो कर लेते हैं, पर मंचों से अपनी कुंठाओं का और दूसरों पर दोषारोपण का ही विस्तार कर रहे हैं। मुरझाए थके हारे चेहरे लोगों के प्रश्नों से परेशान लुटे पिटे तेजहीन चेहरे, मन में चल रहा कुर्सी की लूट-खसोट का विचार क्या बोलना है क्या बोलते हैं कुछ खबर ही नहीं है। सुनने वाली जनता क्या बेवकूफ है। दूसरों की लकीर मिटाकर अपनी टूटी-फूटी लकीर को बड़ा और सुंदर दिखाने का भोंडा प्रयत्न किया जाता है क्या नौटंकी बना दिया हर चीज़ को।
मंच एक पवित्र वेदी होता है उसकी एक मर्यादा होती है। मंच पर जाकर जनमानस को संबोधित करना एक गौरवशाली व्यक्तित्व का ही कर्म है अधिकार है इसके लिए साधना चाहिए न कि कुछ इधर की कुछ उधर की आलोचना, कटुता व स्वार्थ बटोरा और अपने मुँह मियां मिट्ठू बनने का बेसुरा राग अलापना शुरू हो गए। न कोई देशभक्ति जगाने का प्रयास, न मधुर वचन, न उदाहरणस्वरूप प्रतिभावान गरिमापूर्ण व्यक्तित्व। हर छुटभैया जो ज़रा भी हेराफेरी की या लच्छेदार भाषा बोलने की कला सीख जाता है राजनीति को व्यवसाय बना कर धंधा चलाने बैठ जाता है। सब चाचा भतीजे खाओ और मौज उड़ाओ। सत्य-कर्म और देशप्रेम गया चूल्हे में।
पहले जो लोग मंच पर आते थे तो उनका मानवता को कुछ संदेश होता था। कुछ राह सुझाते थे। वंदेमातरम व जयहिंद के नारे गूंजते थे अब सब अपनी व्यक्तिगत सत्ता को हथियाने की लड़ाई को ही मंच पर ले आए हैं। कैसी नीचता और अभद्रता से मंच की शुचिता पवित्रता भंग की जा रही है सबको पता है।
पवित्र गंगाधारा में अपने पाप धोने वाली भारतीयता को गिरावट के कीचड़ में धँसने का लालच देती, इस अशोभनीय असभ्यता को देखना सहन करना भी पाप है। आओ अपूर्णता को नकारें, पाप से घृणा करें पापी से नहीं। जो होता है समय के हिसाब से ही होता है
समय का चक्र तेजी से घूमा है। शहीदे आज़म भगतसिंह ने जब असेम्बली में बम फोड़कर धमाका किया तो यही कहा कि यह बहरों को हमारी आवाज सुनाने के लिए है। आज तहलका ने जो यह बम फोड़ा है तो आत्म-जागरण ही हो जाए तो भी बात बने। अब यह बम कहाँ क्यों कैसे बनाया गया यह राजनीतिज्ञों और नीति विशेषज्ञों के लिए फिर एक चुनौती है। अब जरूरत है इसे पूरी सच्चाई से सुलझाने की ताकि सारे तथ्य सामने आ जाएँ कुछ और मुखौटे उतरें। तभी सत्य पर चलने की नींव पक्की होगी।
जिसने भी गैरत गारत की, सारी सियासत तिजारत की
बख्शेगा न वक्त उन्हें अब, बदलेगी फिज़ा भारत की।
वन्देमातरम्
- प्रणाम मीना ऊँ