स्मृति अनंत सागर भरे मन की गागर
स्मरण की बना मथनी बुद्धि की बना डोर
इच्छा की लगा शक्ति ध्यान का लगा जोर
काल का चक्र घूमा पाया अनमोल रतन ज्ञान का
मानव विधान का वेद विज्ञान का
नव निर्माण का कर्म प्रधान का
सत्य विहान का स्नेह समान का
विश्व कल्याण का प्रणाम अभियान का
आज के मानव ने विज्ञान के बल पर, अपनी लगन और मेहनत के बल पर सब भौतिक व ऐशोआराम के साधन अपने लिए जुटा लिए हैं। स्वर्गिक सुख पाने की इच्छा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फिर भी परेशान है मानव तनाव, कुण्ठा, निराशा, घृणा, द्रोह, नई-नई बीमारियाँ और चारों ओर हिंसा का नग्न तांडव। अपनी प्रकृति पर और प्रकृति के प्रकोपों पर विजय पाने की दौड़ में भागते-भागते थक गया है मानव और अब ढूँढ़ रहा है शान्ति और आनन्द। सच्चाई क्या है? आनन्द कैसा होता है, क्या है परमानंद, जब इन प्रश्नों के उत्तर आधुनिक आविष्कारों में नहीं मिले तो बीते युगों की विधाओं और कलाओं की ओर उसकी मानसिकता मुड़ी है और खोज रहा है राम-कृष्ण, बुद्ध के बताए मार्गों में शान्ति।
उसकी इसी मानसिकता का लाभ उठाकर अनगिनत स्वामी गुरु व आचार्य प्रकाश में आ गए। फिर वही भेड़चाल, कोई बुद्ध-तंत्र की महिमा बता उसकी ओर मोड़ रहा है, कोई योग और कोई रामभजन की ओर। कहीं जैन मार्ग की तरफदारी तो कहीं प्राणिक रेकी और सिद्ध-स्पर्श चिकित्साएँ इत्यादि दुनिया भर के छोटे-बड़े आश्रम व संस्थाएँ कुकुरमुत्ते की तरह फैल गई हैं। खूब बाजार गर्म है आध्यात्म बेचने वालों का। कुछ नया कुछ और ज़ोरदार कुछ और प्रभावशाली बस। इसी भागदौड़ का लाभ उठा रही है व्यवसायिक बुद्धि, धर्म के व्यापारियों की।
मानव की नित-नवीनता की खोज उसे नए-पुराने के चक्रव्यूहों में घुमाती ही रहती है। पर बिंदु पर नहीं पहुँच पाता मानव क्योंकि अपने अंदर नहीं जाता। चिंतन-मनन नहीं करता, पुरानी गलतियों को छोड़ नवीनता नहीं अपनाता। भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति नहीं करता। आध्यात्मिकता (स्पिरिच्युएलिटी) कोई धर्म या संप्रदाय नहीं है। आध्यात्मिकता के नाम पर मानव पुराने युगों के अवतारों को दुनिया भर के नए-नए आडंबरों सहित पूजने लगता है। उनके प्रचार में लग जीवन धन्य मानने लगता है। अपने देश, परिवार, समाज व मानवता के प्रति कर्त्तव्य-कर्म से विमुख होकर। धर्म-सेवा के नाम पर गुरु स्वामियों की सेवा आश्रमों के लिए चंदा इकट्ठा करना, अपने-अपने संप्रदाय का ढिंढोरा बेसुरे रागों से पीटना अकर्मण्यता का बाना ओढ़ना यही कर्म रह गया है।
अरे मानव! तू यह जान ही ले कि तू ही तो प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है। अपने अंदर भगवद् गुण जगाने का उपक्रम व पूर्णता को अंगीकार करने की साधना, अपूर्णता को सर्वथा नकार कर करनी ही होगी। सतयुग में शिव, त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण हर युग में उदाहरणस्वरूप अवतार होता है, उनका जीवन उस युग का आदर्श होता है। बाद में अनुयायी उसे साम्प्रदायिकता का रूप दे देते हैं। अब लकीर पीटने का समय नहीं कल्कि-अवतार की विचारधारा व उसकी स्थापना की प्रक्रिया चल रही है। न मैं योग्य हूँ न मुझे अधिकार है पुराणों की आलोचना का पर इतना अवश्य कहूंगी कि किसी भी मार्ग को अपनाने से पहले उसके दर्शन का पूरा अध्ययन, चिंतन मनन के द्वारा अवश्य कर लो। क्योंकि जिस विचारधारा से जुड़ोगे, जो भी मार्ग अपनाओगे उसी विचारधारा से जुड़ जाओगे। वही धारा तुम्हारे अंदर व्याप्त हो जाएगी।
यदि श्रीराम से जुड़े तो जैसे उन्हें समाज की बहुत चिंता थी कि कोई क्या कहेगा, सीता की अग्नि-परीक्षा फिर गर्भावस्था में त्याग। सबको न्यायसंगत बनाने का कितना अथक प्रयास हुआ। कोई क्या कहेगा यह भाव सदा व्यापेगा रामभक्तों को। अब इसको नयापन देना है। द्वापर के श्रीकृष्ण सर्वकला सम्पूर्ण रहे, गीता जैसा महाग्रंथ दिया जिस पर चलकर ही उद्धार हो जाए। मगर श्रीकृष्ण एक क्षण को भी नहीं भूल पाए कि वह पूर्णब्रह्म हैं। क्या हुआ द्वारिका डूबी और वृश्नि वंश का विनाश हुआ।
यह सब इसलिए नहीं कह रही कि उनकी महानता में कहीं भी कोई कमी थी, वह पूर्णतया वंदनीय व पूजनीय हैं। मेरे आराध्य भी हैं, उनकी ईश्वरीय विभूति में कोई शंका नहीं। राम के आदर्श, श्रीकृष्ण की गीता सर-माथे, पर उनकी मूर्तियां सजा-सजा कर, घंटियां-घड़ियाल बजा-बजा कर, लाउडस्पीकरों पर चिल्ला-चिल्ला कर ऊर्जा-हनन व ध्वनि प्रदूषण फैलाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझना मानव के उत्थान का मार्ग कदापि नहीं है। महात्मा बुद्ध अहम् ब्रह्मास्मि वाले भाव से मुक्त होकर साधारण मानव को मोक्ष की राह बता गए, मगर उनका अपना जीवन राजधर्म परिवार धर्म व देश धर्म त्यागकर उन्नत हुआ। एक बात बार-बार कहूँगी इन सबकी कमियाँ गिनाना मेरा धर्म नहीं उनकी शिक्षाओं का प्रणाम पूर्ण आदर करता रहेगा। पर यह सत्य जरूर कहूँगी कि अंधानुकरण उचित नहीं। अच्छी बातें अपनाओ उसमें नया कुछ जोड़ पूर्णता दो, न कि पिछले को भी बिगाड़ दो।
प्रत्येक अवतार निरंतर उन्नत होती मानवता की शृंखला में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ईश्वरीय प्रेरणा का प्रतीक होता है। अब कलयुग-अवतार उन युगों के बताए रास्ते पर चलकर ही अपना रास्ता निकालेगा। क्योंकि वह भी, प्रकृति की उत्थान प्रक्रिया की उत्पत्ति, अवतारों की शंृखला की ही एक कड़ी है, जो सतयुग का मार्ग प्रशस्त करेगा। जैसे और युगों के अवतार एक जैसे नहीं थे, यह भी भिन्न होगा, मगर होगा समयानुसार संभवामि युगे-युगे ही। शिव का सत्य, राम की मर्यादा, कृष्ण का कर्त्तव्य-कर्म, बुद्ध की अहिंसा, विवेकानंद का विवेक, नानक की भक्ति, मीरा का प्रेम और भी सबका सत्व निचोड़कर अब बना है सिर्फ सत्य कर्म व प्रेम का पूर्ण स्वरूप। जिसे समझने में सदियां लगीं, मगर अब जीने की बारी है-
उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन कहाँ जो तू सोवत है।
प्रकृति की इस पूर्ण प्रक्रिया में पूर्ण आस्था है मनु मीना की। साथ में प्रणाम की पूर्ण आस्था व अनन्य विश्वास प्रकृति की सर्वोत्कृष्टï कृति मानव में, मानव के भगवान होने में! नया जागरण, नया सवेरा, नई ज्योति जले। ज्योति के तेज से मिलकर तेज बढ़े। यह ज्योति सर्वव्यापी हो।
यही प्रणाम का प्रणाम है।
- प्रणाम मीना ऊँ