जो कुछ भी करो सोचो या बोलो यह समझकर करना है कि सब कुछ वही परम शक्ति करवा रही है और उसका दिया उसी को अर्पित करना है। उस परम तत्व को जिसे चाहे परमेश्वर कहो, कृष्ण कहो, खुदा कहो या राम-रहीम कहो।
जिसको हम अपना परम प्रिय मानते हैं उसे हम कभी भी निरर्थक या गंदी वस्तु तो देना ही नहीं चाहेंगे तो अच्छा ही अच्छा अर्पण करना है। हमारा वेद दर्शन तो कण-कण में प्रभु को देखना बताता है मगर एक अच्छे इंसान में हम प्रभु देख नहीं पाते, हर जड़-चेतन में देखना तो दूर की बात रही। कैसे आएगी वह स्थिति जब कण-कण में ईश्वरीय सत्ता की विभूति दिखाई देने लगेगी जो भी सीखा, पढ़ा, गुना हुआ ज्ञान जब हम अपने चित्त को शिष्य और उसे गुरु मान, तपस्या की तरह गुनते हैं, कर्म करते हैं और अनुभव कर सच्चाई तक पहुँचते हैं, तब ऐसी स्थिति का मार्ग प्रशस्त होता है। ध्यान का अर्थ यह नहीं कि हर समय बैठ कर ही ध्यान लगाया जाए। जो भी करें उसमें भाव बस यही हो कि जो भी कर्म करूँ उसमें सबका भला हो, सबको अच्छा लगे, परिपूर्ण लगे। कर्म करने में आए प्रत्येक क्षण को अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से जीना भी योग है। साधना की तरह कर्म करना ही तपस्या है।
आत्मा का प्राकृतिक गुण है- सदा ही आनन्द में रहना। मगर हम आत्मा के गुण में नहीं खेलते। दिमाग में आए विचारों व मन की इच्छाओं से खेलते रहते हैं तभी तो वह रास्ता दिखाई नहीं देता जो सत् चित् आनन्द सच्चिदानंद को जाता है। आंतरिक प्रदूषण खत्म होते ही बाह्य प्रदूषण स्वत: ही खत्म होने लगता है। जिन संतों-सूफि यों ने आंतरिक प्रदूषण खत्म कर दिव्य ज्योति अंदर जगा ली उनके मज़ारों और तीर्थस्थानों में भी इतनी शक्ति आ जाती है कि वहाँ पहुँचकर दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। एक खुशबू-सी व्याप्त रहती है। सबको यह बात समझ ही लेनी चाहिए कि एक बार आंतरिक प्रदूषण समाप्त हुआ तो स्वत: ही दिव्य रोशनी अंदर भरकर हमें हमारा सच बता देगी और अपनी व्यक्तिगत क्षमतानुसार कर्म भी देगी। इतने युगदृष्टा संत महात्मा हुए कोई भी एक-दूसरे जैसा नहीं था। उनका कर्म भिन्न था, सोच भिन्न थी, मगर सब अपनी जगह सही थे, क्योंकि प्रकृति जानती है, किससे क्या काम, कब और कैसे, कहाँ और क्यों कराना है। पर हम अपने अधूरे ज्ञान के आधार पर, अपनी ही गणना के हिसाब से चलते हैं और फिर अपने ही चारों ओर मकड़ी के जाले की तरह चक्रव्यूह रच लेते हैं।
जब शुरू में मानव पृथ्वी पर आया तो वह अहम् रहित, छवि रहित था। न कोई ब्राह्मïण था, न क्षत्रिय, न शूद्र, पर प्रकृति जानती थी कि उनकी क्षमताएँ क्या-क्या हैं? जिनकी बुद्धि तीव्र थी व जिन्हें ब्रह्म ज्ञान की आकांक्षा होती थी, उन्हें ब्राह्मïण-कर्म दिया। जिनमें शारीरिक बल व आक्रामक-तीक्ष्णता थी, उन्हें क्षत्रिय-कर्म दिया। जिनमें गणना व पदार्थों के मूल्यांकन की क्षमता थी, उन्हें वैश्य-कर्म दिया और जो बुद्धि से दुर्बल थे, उतने सक्षम नहीं थे जितने और थे तो उन्हें शूद्र-कर्म दिया। उन्हें छोटे-मोटे काम दिए जो अपने आप में महत्वपूर्ण थे।
यह व्यवस्था बन गई कि ब्राह्मïण समाज को ज्ञान से परिपूर्ण करें, क्षत्रिय गुणीजनों दुर्बलों व देश समाज की रक्षा, आसुरी प्रवृत्तियों से अशोभनीय शक्तियों से करें। वैश्य जन उनकी अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाएँ, संभालकर आर्थिक सुरक्षा दें। और शूद्र सबकी सेवा-कार्य संभालकर उन्हें अपना कार्य ठीक से करने का समय दें। उनके साथ रहने पर सेवा करने पर उनके गुणों को जितना हो सके धारण कर समाज के उपयोगी अंग बनें। सबका अपना-अपना योगदान महत्वपूर्ण था। जाति विभाजन शारीरिक व मानसिक क्षमता के आधार पर था न कि वंशगत।
धीरे-धीरे यह कट्टर वंशावली में परिवर्तित हो गया। सब एक दूसरे को ऊँचा-नीचा दिखा, स्वार्थसिद्धि में लग गए। अपना-अपना कर्त्तव्य-कर्म भूलकर, अपनी क्षमता भूलकर, देशप्रेम, समाज-प्रेम सब भूलकर, एक-दूसरे के प्रति कटुता जागृत कर ली। कर्म, जो भी हो यदि उसे पूरे मनोयोग से किया जाए तो वह परम शक्ति को ही अर्पण किया हुआ होता है और उसका फल कुरूप हो ही नहीं सकता। हाँ, मगर यह जानना कि सही समय पर सही कर्म क्या है? यही विवेक है। मुसीबतें पड़ने पर दिशाहीन, कर्महीन होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना मानव जीवन का अपमान है।
कर्म करना होगा अविरल, तभी होगा स्वाभिमान सबल।
हम इतने व्यक्तिगत स्वार्थ में जीते हैं कि अगर हम पर कोई मुसीबत पड़ती है तो पूरी भागदौड़ कर, खिला-पिलाकर, हाथ-पैर जोड़ कर, खुद्दारी या स्वाभिमान को ताक पर रखकर, भ्रष्टïचार के भागीदार बनकर काम कराकर भी उसी को कोसते हैं। मगर देश व समाज पर आए संकटों के प्रति उदासीन रहते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा उनका बखान कर उनका दोष व्यवस्था पर मढ़कर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। जो प्रयत्न कर रहे हैं, उन्हें भी निरुत्साहित करते हैं कि क्या करना है, झगड़े-झमेलों में पड़कर। हाँ, कभी तारीफ भी शायद करें, मगर न साथ देने की इच्छा जगाते हैं, न सहयोग की।
पर कब रुकते हैं सत्य के राही, कर्म के सिपाही क्योंकि उनके कर्म तो समय की पुकार को समर्पित हैं। कोई सराहे या नकारे इसकी उन्हें परवाह नहीं होती, क्योंकि प्रेरणा देने वाली शक्ति भी वही तो है जिसे कर्म अर्पण करना होता है। कर्मयोगी का कर्म उत्तर देने वाली और प्रश्न करने वाली एक ही परम शक्ति के भाव से होता है।
कोई वाद-विवाद नहीं, शंका नहीं। यदि परम शक्ति कर्म न करे तो कैसे चले सृष्टि का कारोबार। प्रभु संभालते हैं ब्रह्मïण्ड की व्यवस्था और संसार की व्यवस्था संभालने को मानव रचना की। पर मानव भूल गया अपने में ही रम गया। आया था सत्यम शिवम् सुंदरम् संसार रच प्रभु को अर्पण करने, मगर लग गया अपनी अहम् बुद्धि से तोड़-मरोड़, जोड़-तोड़ करने।
अब भी जाग जा, मानव! कांटे न अर्पण कर, धरा को कांटों से रहित कर। सृष्टिïकर्त्ता को दीया जलाने की अपेक्षा सत्य की रोशनी अर्पित कर, घंटियाँ बजाने की अपेक्षा प्रेम का संगीत सुना। घंटों आसन-पूजा की अपेक्षा कर्मयोग की तपस्या अर्पण कर। चल उठ कर्त्तव्य कर्म कर, माँ भारती के प्रति, देश के प्रति, मानवता के प्रति।
- प्रणाम मीना ऊँ