कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल

कलियुग में गीता का उद्घोष करने
मन से मन की जोत जलाने
सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने
प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ


सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी।
कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन के सभी विकारों व अंधकार को बाहर निष्कासित कर ईश्वर को सौंपना है। इस प्रकार सांसों के प्रति सजग रहने से सदा प्रभु सिमरन चलता ही रहता है। कबीर जी कहते हैं – पूर्ण भक्ति वही है जिसमें कुछ भी करो कहीं भी रहो ईश्वरीय सत्ता को न भूलो।

सच्चा कर्म वही है जो स्वाभिमान का गौरव बनाए रखे। धर्म निष्क्रियता का नाम नहीं है। कर्म एक ऐसे ओज व तेज का नाम है जो स्वाभिमान व आत्मसम्मान की रक्षा को सदा तत्पर रहे। ‘मनसा-वाचा-कर्मणा अर्थात् मन-वचन-कर्म एक ही सत्य में बँधे हों तो कर्म की अपार शक्ति का स्रोत खुल जाता है। कर्म तभी अर्थपूर्ण है जब जागरूकता व चैतन्यता भी साथ हो। स्वाभिमान व अहंकार में भेद जानना विवेक है और जागरूक बनना है। अहंकार तुष्टि पर प्रसन्नता होती है और ठेस लगने पर दुख व खिन्नता अनुभव होती है। मगर स्वाभिमान मान-अपमान से परे होता है। ठेस लगने पर भी और तुष्टि होने पर भी वह हर हाल में बस कर्म को प्रेरित होकर कर्मयोगी हो जाता है। जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्वाभिमान व स्वधर्म के लिए युद्ध के लिए प्रेरित किया। दुर्योधन ने जब सुई की नोक के बराबर भी राज्य देने से इंकार किया तो अर्जुन ने शस्त्र उठा, गुरुजनों, आचार्यों व सम्बन्धियों के प्रति सब सांसारिक बंधनों को नकारकर अपना अधिकारयुक्त साम्राज्य ले ही लिया। स्वाभिमानी मानव स्वाभिमान का महत्व व उसके प्रति धर्म को खूब जानता है, उसकी कीमत जानता है चाहे वह उसका अपना हो, दूसरे का हो या अपने देश व धरती का हो। सत्यधर्म की पूर्णता इसी में है कि वह अपूर्णता व असत्य को नकारे व सत्यकर्म की पूर्णता है अपूर्णता को ललकारे। ऐसा करने वाले के कृष्ण स्वयं सारथी बन जाते हैं।
हिम्मते मरदां मददे खुदा


स्वाभिमान व अहंकार में भेद जानकर यदि अपना कर्म निश्चित न किया तो ज्ञान-अज्ञान में बदलकर धरा का धरा रह जाएगा नुमाइश बनकर। गीता का ज्ञान तो यही बताना है कैसे समयानुसार अपना कर्म निश्चित करना और कैसे उसको पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से सरअंजाम देना। समय की पुकार सुनकर कर्म को वही प्रेरित होगा जिसने सत्य का सुदर्शन चक्र साध लिया हो।

समय की बात तो बहुत लोग जान जाते हैं। मगर कर्म के लिए झांसी की रानी व भगत सिंह जैसा साहस व स्वाभिमान की रक्षा का संकल्प नहीं होता। सच्चा कर्मयोगी स्वाभिमान की रक्षा तन, मन, धन से करेगा ही। माँ भारती के स्वाभिमान के गौरव के प्रतीक, भारत के उन्नत भाल के सिरमौर मुकुट हिमालय पर्वत के उत्तुंग धवल शिखर हैं। इनके लिए कर्म करना कर्मठता है। जीवन की पूर्णता लंबी उमर में नहीं होती, कैसे मानव धर्म निबाहा उसमें होती है।

चारों ओर बुद्धि विलास वाक चातुर्य और कागज़ी घोड़ों की भरमार है। आश्वासनों पर भरोसा करते-करते जनमानस आलसी हो गया है। शायद अबकी बार, शायद अब कुछ ठीक हो जाए। शायद किसी मार्ग-विशेष से शान्ति मिल जाये। कहीं से आशीर्वाद ही मिल जाए। लाटरी की तरह भिन्न-भिन्न प्रकार के टिकट लेकर या खरीद कर सपने देखता है। यह हाल तब है जबकि सब जानते हैं, सुनते और रटते रहते हैं रट्टू तोते की तरह कि भगवान तो इंसान के भीतर ही है। मगर यह सच जानने व मानने का संकल्प कितने कर पाते हैं। क्योंकि मानव शरीर जो बड़े भाग्य से मिलता है, इस धरती पर जन्म लेता है, उसका सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण कर्म तो यही है अपने अंतर के प्रभु से मिलन। यह मिलन तभी संभव है जब सत्य की कसौटी पर अपने को कसने की तपस्या पूरे मनोयोग से प्रेमपूर्वक की जाए।
कण-कण कहे यही कहानी
मन से जान ले ओ प्राणी
यही है गीता सुहानी
सत्य प्रेम और कर्म ही तो है
सच्चिदानंद हरि होने की निशानी


यही प्रणाम का सबको प्रणाम है, क्योंकि प्रकृति का चुनाव ही प्रमाण है, संभवामि युगे-युगे के सत्य का, कृष्ण के वचन का। कर्म कर, करता चल, सतत् अविरल अविचल! इस आकांक्षा की प्रार्थना के साथ –
आकांक्षा करो
ऐसे संवेदनशील हृदय की
जो सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करे
ऐसे सौंदर्यमय हाथों की
जो सबकी श्रद्धा से सेवा करें
ऐसे सशक्त पगों की
जो सब तक प्रसन्नता से पहुँचें
ऐसे खुले मन की
जो सबको सत्य प्रेम से अपनाए
ऐसे मुक्त आत्मस्वरूप की
जो आनन्द से सबमें लीन हो जाए


हमारा जगत हमारे विचारों की ही सृष्टि है जैसा मन, वैसी कामना, वैसा ही संकल्प होगा, फिर कर्म भी वैसे ही होंगे तो फल तो स्वत: ही इसके अनुरूप होगा। यही है सत्य, कर्म और प्रेममय हृदय की सतत् धारा। आओ इस जगत तारिणी गंगा को प्रणाम करें, प्रणाममय हो सत्य विस्तार करें।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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