कर्मगति का ऋण विधान

हे मानव ! ध्यान से सुन आज की गाथा, ज्ञान का फैलाव न चाहे विधाता। थोड़ा ज्ञान, जीया हुआ ज्ञान ही मुक्त कर जाता। तू सदा एक ही रट लगाता है कि मुक्ति कैसे हो, कैसे मोक्ष प्राप्त हो? तो जान ले, बहुत कठिन नहीं यह काम। इसी शरीर में तू मुक्ति पाकर सदा आनन्द का अनुभव कर सकता है।

भूल जा सब कुछ अगला- पिछला जन्म, दुख-सुख की प्रतीति, कर्मबंधनों की रीति। पिछले कर्मों की दुहाई देने से, उनसे छुटकारा पाने के क्षुद्र, छोटे-छोटे या वृहत बड़े-बड़े मार्ग अपनाने से कुछ नहीं होने वाला। इनका सीधा सा विज्ञानमय रहस्य जान। जरा सोच, तू क्या देता है, दे सकता है विशेषकर उसको जहाँ से तू लेता है यह जान कर उसका ऋण उतारता चल साथ के साथ हाथ के हाथ तभी जीवनोन्मुक्त आनन्द अनुभव कर पाएगा।

परम कृपालु परमेश्वर ने बड़ा ही सुगम बनाया है यह विधान। इस संसार में रहते हुए तीन ऋण कर्जे तेरे ऊपर चढ़ते हैं, चढ़ते रहते हैं और चढ़ते ही रहेंगे। ऋण पराधीनता का बोधक है और पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। इन तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होते रहना ही महान साधना तपस्या और पतितपावनी पूजा है। परम चेतना के समीप होने और अन्त में उसी में विलय होने का मार्ग, योग है।

संसार में आने के पश्चात् ये ऋण शरीर व आत्मा के ऊपर चढ़ते हैं। पहला बुद्धि प्रणाली पर, दूसरा पाचन प्रणाली पर, तीसरा कर्मेन्द्रियों हाथ-पैरों पर और सबसे बड़ा अदृश्य कर्जा प्रकृति का मन व आत्मा पर। इन सारे कर्जों को संसार में रहते हुए जो चुका कर मुक्त हो जाए वो ही सच्चा मानव होता है।

बुद्धि प्रणाली, ज्ञानेन्द्रियों का कज़ार- जो भी संसार में देखा पढ़ा सुना और ग्रहण किया, वो ज्ञान लौटाना बाँटना व बताना होता है बुद्धि को खाली व हल्का करने के हेतु। कुछ भी सीखो जानो गुनो वो सब तुम इसी संसार से ही बुद्धि घट में भरते हो तो यह भरा घट, घड़ा, यहीं इसी संसार में खाली करना होता है। यही होता है बुद्धि ऋण से मुक्ति। यहीं से प्राप्त किया, यहीं चुकाना। आर्थिक लाभ लिया तो भी अपने जीवन निर्वाह के लिए प्रसाद रूप में ग्रहण कर बाकी का उपयोग मानव अस्तित्व व प्रकृति को सौन्दर्यमय व कल्याणमय बनाने हेतु प्रयुक्त करना है।

जो ज्ञान, न अपने कल्याण हेतु न समाज व प्रकृति के कल्याण हेतु प्रयुक्त हो, बंधन का कारण होता है और कर्मबंधन का मकड़जाल होता है। मनोमय कोष पर ऋण होता है।

पाचन प्रणाली- पेट, अन्न का ऋण कब-कब किसने खिलाया-पिलाया, पाला-पोसा, बड़ा किया। ये सब ऋण चुकाना होता है इसमें सबसे बड़ा है मातृदुग्ध का ऋण। पहले जब किसी का अन्न खाते थे तो पूरे प्रेमभाव व आतिथ्य सत्कार से उसे खिलाते भी थे। आज मतलब से खिलाते-खाते हैं और कुछ तो केवल खाने के लिए ही बने हैं। खा-पीकर मुड़कर भी नहीं देखते, इस सत्य से अनभिज्ञ कि कुछ भी खाया किसी का अन्न ग्रहण किया वो सब अन्नमय कोष पर ऋण होता है। पर प्रकृति की असीम अनन्त विराट न्याय व्यवस्था इतनी कृपालु व सुव्यवस्थित है कि जिससे पाया वहीं लौटाना आवश्यक नहीं होता, आगे कहीं और बहा देना भी उसी का अंग है। यही सच्चा ध्यान है कि सदा ध्यान रहे कि कितने भंडार पेट के अन्दर चले गए। कितने पोषक तत्व तेरे रक्ताणुओं में समाकर तुझे जीवनदान दे रहे हैं। उतना ही तुझे भी किसी और को देकर जीवनदान में योगदान देना है, यही सृष्टि का सत्यमय चक्र है। पर कलियुग में मानव कहाँ कहाँ से भकोस लूँ खा लूँ पी लूँ निचोड़ लूँ मेरा काम चल जाए बस। यह नहीं सोचता कैसे उतार पाऊँगा यह कर्जा। ऋणभार उतारने का उद्यम कोई नहीं करता और जब ऋणभार से अन्दर तक दब जाता है, घुट जाता है तो बीमार शंकित व भ्रमित व्यक्ति क्रोधित और दुखित होकर कोई विशेषज्ञ डाक्टर या आध्यात्मिक गुरु स्वामी की खोज में भागता-दौड़ता है, भटकता है और वो सब भी अपनी बुद्धि के अनुसार ही मिलें, यही मानसिकता रहती है।

ऋण बोझ से मुक्ति की अपेक्षा ऋण बोझ के दबावों या उसके लक्षणों की व्यथा न सताए, यही प्रयत्न रहता है। ऋण मुक्ति हेतु सोच-सोचकर ध्यान लगाकर जानना होता है कि किस-किस का अन्न ग्रहण किया और कैसे चुकाना है। कलियुग में मानव माता-पिता को खाना, शरण और सेवा देने को ही व्यर्थ समय गंवाना समझता है। अपने को सही जताने को कह देता है यदि पाला-पोसा है तो अपनी ही कर्त्तव्य या निभाई है, कोई अहसान नहीं किया। ऐसे मानव से क्या अपेक्षा जो अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण अपनी सुख-समृद्धि के लिए मंदिरों पूजा-पाठों पार्टियों व्यर्थ के पाखण्डों ढकोसलों दिखावों में लाखों व्यय कर देगा पर अपने ही माता-पिता या बुजुर्गों के लिए दो बोल आदर करुणा या ममता भरे बोलने में पूरी कंजूसी – कृपणता दिखाता है। कहाँ कुछ व्यय होता है प्रेम करुणा ममता क्षमा दया आदि के दान में पर वह भी देना बहुत कठिन लगता है। अपने अहम् स्वार्थ और कर्तापन में इतना रम गया है मानव कि इन दानों के योग्य भी नहीं रहा। हे मानव! सोच इतना ऋणभार लेकर तू कैसे चैन से रह पाएगा। कर्मबंधनों में बँधा मुक्तानंद कहाँ से पाएगा।

तीसरा कर्मेन्द्रियों का ऋण- हाथ-पैरों पर चढ़ता है। जब-जब कोई आपकी सहायता करता है, आपके श्रम को बाँटता है या कम करता है तो वो ऋण भी चुकाना होता है। किसी ने हाथों से सेवा की, कोई चल कर आया सेवा या मदद करने इन सभी का ऋण चढ़ता है। पर जैसा कि पहले बताया है कि ऋण जिससे चढ़ा है यदि वहाँ ही उतार न पाओ तो कहीं और उतार दो, इसका पूरा प्रावधान प्रकृति के कर्मचक्र व कालचक्र के शाश्वत नियमों में है तभी तो जीवन गतिमान होता है। यह तीनों कर्जे तो संसारी ऋण हैं जो सदा ध्यान रखकर व याद रखकर कर्मों द्वारा या अन्य साधनों द्वारा चुकाए जा सकते हैं। इन सबके अतिरिक्त एक और अदृश्य ऋण है और वो है प्रकृति का आत्मा पर…

प्रकृति का मन व आत्मा पर इसे केवल प्रकृति के अनुरूप व समरूप होकर ही चुकाया जा सकता है। प्रकृति के सत्य प्रेम व कर्म के सनातन नियमों का पालन कर विस्तार कर प्रकृति की तरह देने वाला बनकर। प्रकृति के शाश्वत नियमों का पालन ही सच्ची साधना व तपस्या है। यही है सत्य मीना मनु का भी।

यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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