कन्हाई की तन्हाई प्रणाम हृदय समाई

कन्हाई का तो बस अब एक ही प्रश्न है क्या हर युग में बार-बार विराट रूप दिखाना ही पड़ेगा तभी पहचानेगा अर्जुन श्रीकृष्ण के स्वरूप को। क्या कोई अर्जुन, इतना जो ज्ञान फैला हुआ है चारों ओर, उससे ज्ञान चक्षु खोलकर दिव्य दृष्टि पाकर, स्वत: अपने आप ही उस स्वरूप को पहचान नहीं पाएगा जो राह सुझाता है, सत्य मार्ग बताता है। कौन समझता है कन्हैया का दर्द, माधव मोहन का मर्म।

जिस बाल सखा अर्जुन को गीता ज्ञान देकर विक्षोभ से मुक्ति दिलाकर विजय का मार्ग प्रशस्त किया। अधर्म पर धर्म की जीत स्थापना में पूर्ण सहयोग दिया। रथ हाँका सारथी बनकर उसने भी कहाँ मुड़कर देखा कि कैसी कैसी स्थितियों से गुजरे मधुसूदन गांधारी का विषाक्त श्राप धारण कर। यही तो विडंबना है प्रभु की सदा स्वयं ही शापित होते रहते हैं कभी भी श्राप देते नहीं। ऋषियों-मुनियों व पहुँचे हुए मानवों से हुई गलतियों के सुधार हेतु अवतरित होना और बार-बार मानवों द्वारा ही प्रताड़ित हो मुस्कराते हुए दर्द पीना।

विष्णु हरि का दुखी माँ के गर्भ में इसी भाव से पोषित होते रहना कि तुझे अधर्म से बदला लेना ही है अन्याय से टकराना ही है। पिता संतानोत्पत्ति करते ही रहे इसी भाव से कि कोई तो बचेगा बदला लेने को। नन्हें से गोपाल पैदा होते ही माँ-बाप बिछुड़े। बचपन का यह दर्द इन उद्गारों में फूटा यशोदा मैया तू मुझे ही डाँटती है जानि परायो जायो। गायों को चराने जैसे नीरस व उबाऊ काम को भी बांसुरी बजा जंगल में मंगल बना लेना, मुरली मनोहर गोपाल बनकर मनभावन बनना। गृहकार्य से उकताई नारियों को श्रृंगार रस चखा जीवन रसमय करना। कालिया दमन कर जमुना को पवित्र शुद्ध कर खेल-खेल में पर्यावरण बताना। अकेले-अकेले रहकर सतत् चिंतन व मनन की परिणति, पूर्ण कर्म में ही करना पूर्ण वैराग्य सहित, यही तो साधा मेरे नन्द नन्दन ने। घी, मक्खन पर पलकर प्रकृति के समीप रहकर जो शक्ति पाई तो ज़रा-सा यौवन में कदम रखते ही अक्रूर आ गए लेने, चलो भैया केशव कंस का उद्धार संहार करना है। कैसे मन बाँधकर कर्मवेदी की पुकार पर, अपने सर्वस्व में समाहित, प्रेम का वेद पढ़ाने वाली मन में रमने वाली राधारानी को पत्थर बना वैराग्य का मूर्त रूप बन आगे चल दिए। कभी-कभी जब दर्द टीसता तो बस यही- ऐ ऊधो! मोहे ब्रज बिसरत नाहीं। सिर्फ इतना ही और फिर वही निर्लिप्तता जो तटस्थता या उदासीनता कदापि नहीं रही। ऐसी स्थिति जीवनभर रही। कभी भी कुछ भी न भूलना, याद भी आती रहना पर उसमें लिप्तता नहीं, यही तो वैराग्य की चरम सीमा है। अंदर अथाह सागर हर प्रेम का, हर प्रेम की पीर का जो प्रभु बना दे। जितना प्रेम उतना ही दर्द पर फिर भी रोज नया होकर खिलना। नित नूतनाम्बुदमय होकर नई मनोहारी मुस्कान के साथ मनभावन हो जाना-

नया तन नया मन नए हों दिन रात
जो बीत गया उसकी क्या करूँ अब बात
जिंदगी की यही सौगात जो न चल सके साथ
प्रेम का क्या होता है स्वाद न जान पाएगी उनकी जात
पर मन न हो उदास जो होगा मन के पास
वही तो जाएगा साथ राधा की तरह क्योंकि
मन सदा जाने जैसे कोई साथ-साथ हो
आसपास ही हो जैसे मोहन की कहानी
जिसने जानी उसने मानी सृष्टि ने जानी
मुनियों ने बखानी कैसे जाने प्राणी
प्रीत पुरानी रीत पुरानी प्रेम कहानी
सकल ब्रह्माण्ड समानी कण-कण कहे यही कहानी
बस प्रेम ही प्रेम तो है कृष्ण हरि गोविंद होने की निशानी
और क्या प्रमाण चाहिए तुझे ओ प्राणी
प्रेम की प्रेम पर ही खत्म होती है कहानी
यही तो राधा जानी, प्रेम में आया विछोह भी
कृष्ण मिलन प्रभु मिलन ही तो है।


श्री मुकुन्द हरि का प्रेम अनन्त अथाह, जो सब ब्रह्माण्डों को समा ले अपने अंतर में अकेले ही पर फिर भी अंत समय कोई न साथी न संगी साथ रहा। बलभद्र भी पहले ही पाताल लोक चले गए शेषपद का कर्म जो करना था। कैसे कहाँ शास्त्रानुसार हुई विश्व रूप जगद्गुरु श्री द्वारकाधीश की अंत्येष्टि किसने जाना। द्वारका डूबी वंश समूल नष्ट हुआ बस राधा ही तो गई दिल में तभी तो आज तक गूँजता है राधा रमण गोपाल हरि। हाँ अंत समय गोवर्धनधारी, भावों के ईश्वर हृषिकेष नटवर जो मन से सदा बृजबिहारी ही रहे, उनकी आत्मा ने एक ही भाव छोड़ा ब्रह्माण्ड में कि आगे से कोई अर्जुन, अर्जुन न रहे जो ज्ञान लेकर अपने रास्ते चल दे। अर्जुन को भी कृष्ण ही बनना होगा ताकि गीता की पूर्ण स्थापना हो। कोई भी संशय न रहे सब कृष्ण ही कृष्ण हों प्रेममय ज्ञानमय कर्ममय सत्यमय कृष्णमय, प्रेम ही प्रेम में बसे खुदाई।

यही है सत्य यही प्रणाम के मन भाई
प्रणाम के प्रेम को प्रणाम,
प्रणाम प्रेम पूरित धरती माँ को
सत्यमेव जयते

  • प्रणाम मीना ऊँ

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