बढ़ना है सुप्रभात की ओर
सत्य प्रेम की पकड़ डोर
कालगति का सतत् प्रवाह
घूम गया सतयुग की ओर
कालचक्र घूमा है। समय करवट ले रहा है तभी धरती डोल रही है। सब उन्नत होते मानवों में आंतरिक बेचैनी-सी व्याप गई है, खालीपन कुछ खोया-सा कुछ अजीब सा सूनापन या तटस्थता-सी छाई है दिलों पर।
खोल दो दिलों के ताले, उड़ने दो मन पंछी को आज़ाद। अपने अपने सत्य को स्वीकार कर लो। अपने ही मन की अदालत में मुक्त हो जाओ पाप-पुण्य गलत-सही के संघर्ष की दुविधा से। क्योंकि अब सबको सच्चाई की नई दिशा की ओर बढ़ना ही होगा। सब मानवकृत धर्मों का शोर-शराबा भूलना ही होगा। इंसानियत का धर्म अपनाकर संतुलन पैदा करने की बारी आ गई है। तू बदलेगा, मानव तुझे बदलना ही होगा। बदलाव की घड़ी सिर पर खड़ी है, आ ही पहुँची है। अब तू चाहे या न चाहे तेरी मानसिकता उधर ही चलेगी। जो कुछ तेरी परिधि में तेरे अंदर-बाहर घट रहा है उसका संदेश पढ़ने में अपनी योग्यता लगा। कुछ भी व्यर्थ व अर्थहीन है ही नहीं, इन सबका महत्व व उद्देश्य अवश्य ही है। जो तेरी सीमित कर दी गई बुद्धि और संगदिल मन की सोच से परे है। पर जो एक सच्चे व प्रेममय हृदय के लिए अगम्य नहीं है।
यह सच्चाई जान लेना, समझ लेना ही दिव्यता की उस सीढ़ी पर चढ़ा देगा जो पराज्ञान की पराकाष्ठा को जाती है और इंसान को उसकी जात बताती है। इसके लिए दस बातें, जो कि दस संवेदनाओं से जुड़ी हैं, ध्यान रखनी होंगी। श्रीशिव भी जब तांडव करते हैं, अपूर्णता को मिटाने को, तो दस भावों का और उनके उद्वेगों के रसों का पूरा नियमन करते हैं। अपूर्णता को मिटाने की तैयारी करनी ही होगी अब समय की मांग यही है। और इसके बिना निस्तार भी नहीं है। अंदर छुपी शक्तियों की धारा अब मोड़नी ही होगी इसके लिए –
भय को बदलो प्रेम में।
नाटकीयता (हिपोक्रेसी) ढोंग या पाखंड को-स्वयंसिद्धता, सत्य व तथ्य में
अनावश्यक नियंत्रण व दबाव को- कर्म व विश्वास में।
स्वयं की आलोचना व आत्म-प्रताड़ना को- अपनी शक्ति में।
मानसिक शक्ति, ज्ञान-विज्ञान को- विद्वता व विवेक में।
स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता को- एक दूसरे की पूरकता में।
बदले की भावना को छुट्टी देकर- मुक्ति के आनन्द में।
क्रोध को- अपूर्णता के विनाश की, दुर्गा शक्ति में।
समस्याओं को- ईमानदारी, सद्भाव व सत्य व्यवहार में।
प्रेम की कमी को- दिव्य ज्योतिर्मय प्रेम-प्रसार में।
अपनी बात मनवानी हो तो अपने में विश्वास रखो, सत्य जीओ। वाणी में सत्यता की शक्ति तभी आती है जब स्वयं सत्यरूप हो जाओ। सारी अपूर्णता व असहमति को क्रियाशीलता व कृतित्व में बदल देता है सत्य-कर्म। दूसरे तुम्हें क्या समझते हैं इसकी चिंता छोड़ सिर्फ अपने प्रति ईमानदार रहो। होड़ की अंधी दौड़ में इंसान भूल गया अपने अंतर के अपार ज्ञान के स्रोत को। नकार दिया अपने अद्वितीय अस्तित्व के महत्व को। पर पथ भूला राही मानव अब सत्यता को मानना चाह रहा है अपनी सच्ची जड़ें ढूँढ़कर जुड़ना चाह रहा है।
हे मानव, सृष्टिï के आरम्भ से, युगों-युगों से जन्म-जन्मांतर से तेरे गुरु तो प्रकृति स्वरूप स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश रहे हैं जो कि ध्यान धरने से ही ज्ञान दे देते हैं बिना किसी दान दक्षिणा के। सब महान विभूतियों की जीवनी से एक-एक मोती चुन लो, तो कल्याण ही कल्याण है –
तेज सूर्य का, ज्ञान ब्रह्मा का
विस्तार सागर का, शक्ति शिव की
गुण राम के, नीति-वैराग्य कृष्ण का
सेवा हनुमान की, भक्ति नानक की
तपस्या बुद्ध की, दया महावीर की
प्रीति मीरा की, उदारता वेद धर्म की
दिल बड़ा ब्रह्माण्ड का, अमृत चंद्रमा का
ज्ञान शारदा का, नैतिकता विदुर की
त्याग दधीचि का, क्षमा ईसा की
फकीरी कबीर की, प्रतिज्ञा प्रताप की
चरित्र शिवा का, श्रद्धा रविदास की
बुद्धि की तीक्ष्णता विवेकानंद की
सूक्ष्मदर्शिता अरविंद की
कृपा परमपिता परमेश्वर की और
प्यार माँ भारती का
जागो मानव! पहचानो अपने स्वरूप को, अपने सत्य को प्यार करना सीखो। अब गीता जीने का समय आ गया है यह सत्य जानो और मानो। श्रीकृष्ण ने कहा- जब-जब मानवता याद करेगी-मैं आऊँगा ही। पर उनको पहचानने के लिए पहले अर्जुन तो बनना ही होगा। क्योंकि कृष्ण गीता तभी बताते हैं जब उस पर कर्म करना होता है। गीता तो सदा से ही कृष्ण के अंदर ही व्याप्त रहती है पर कब वाणी से प्रकट करनी है वह समय तो अर्जुन की सुपात्रता पर ही निर्भर है। यही है प्रणाम का प्रसार अपने अंदर के अर्जुन को पहचानो। अपनी शक्ति को जानो, मानो और क्रियाशीलता में बदलो। तुम्हारे अंदर ही है वह ज्योति जो चारों ओर व्याप्त अंधकार को काट सकती है। समय यही कह रहा है। सब समझ रहे हैं यह बात अब होनी ही है शुरुआत। झूठ की क्या बिसात जो काटे सत्य के हाथ।
आओ, प्रणाम करें काल की महाशक्ति को! उसका अवतरण उसके सुयोग्य पात्र व सिपाही बनकर करें। समय उन्हीं का साथ देता है जो समय का साथ देते हैं।
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ