आध्यात्मिक मानव और यांत्रिक समाज Spiritual Man and Digital Society

विज्ञान के उत्थान ने निसंदेह जीवन को अत्यंत सुविधाजनक बनाया है। सम्पर्कों, सूचनाओं और प्रसारों को नए-नए आयाम दिए हैं। बहुत से साधन जुटा दिए हैं पर साथ-साथ कुछ समस्याएं भी खड़ी कर दीं हैं। प्रत्येक वस्तु के विवेकशील उपयोग से सहायता मिलती है और अंधाधुंध विवेकहीन उपयोग से या अनुकरण से हानि की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं। इसके लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि केवल भौतिकता या भोगवाद ही मानव के सौंदर्यमय सहअस्तित्व के लिए पर्याप्त नहीं।

कुछ मुख्य समस्याएं जो आज के मशीनी, याँत्रिक, समाज को ग्रसित कर रही है वह हैं:-
निर्भरता : पुरुषार्थ की कमी, कर्महीनता, संवेदनशीलता की कमी, अपना ही सोचना, अपने बनाए हुए चक्रव्यूहों में ही घूमते रहना।
असंतुलित स्वास्थ्य : शरीर के प्राकृतिक प्रवाह से छेड़छाड़। तनाव बेचैनी आंखें व त्वचा प्रभावित शरीर का त्रुटिपूर्ण झुकाव या मुड़ाव मानसिक द्वन्द आदि-आदि।
भाषा व साहित्य के सौंदर्य में कमी : यहाँ तक कि सही व मधुर शब्दों व कवितामय नवीनताओं की अभिव्यक्ति लगभग समाप्ति के कगार पर है। भाषा क्षमता में निरंतर कमी होती जा रही है। भाषा सौंदर्य का हनन हो रहा है। गंभीर मधुर तेजोमय गरिमापूर्ण शोभामय व प्रेरणादायी सुंदर शब्दों के महत्व का ज्ञान यांत्रिक समाज कैसे दे पाएगा। कल्याणकारी गंभीर विषयों पर चिंतन व संवाद हेतु उचित और सटीक शब्द ही नहीं हैं। शब्द ज्ञान इतना कम हो गया है कि अच्छे वक्ताओं की बात लोग समझ ही नहीं पाते विशेषतया नई पीढ़ी। साहित्यकता कम होने से सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र गिरता है। सत्यम् शिवम् सुन्दरम् को सराहने की क्षमता ही नहीं होगी तो ऐसा विश्व कैसे रच पाएंगे।
सीमितता : व्यक्तिगत संबन्धों की अपनेपन व सामाजिक आदान-प्रदान के सौंदर्य की अपनत्व की भारी कमी। सभी व्यवहारों और संबन्धों में एक तकनीकी तड़का, व्यवसायिकता, मानसिक जोड़तोड़ और लाभ हानि का गणित। मशीनी हावभाव और बंधी-बंधायी व्यवहार कुशलता जिसमें कोई सुगंध रस रंग और आत्मीयता की नरमी और गरमी नहीं, केवल ठंडा रूखा और बनावटी यांत्रिक संचालन। यंत्रों को अपने अधीन जानकर अपने मन से चलाते-चलाते दूसरों को भी मशीन समझ वैसे ही मनचाहा चलाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। मन से न चले तो हटा दो जैसे बिगड़े या न चलने वाले यंत्र को हटा देते हैं। वास्तविकता यह है कि-
”विज्ञान आत्मानुभूति बिना अधूरा है
और आत्मानुभूति विज्ञान बिना अधूरी है।”


आत्मानुभूति आत्मा का विज्ञान है आत्मा ऊर्जा और मानव अस्तित्व को सम्पूर्णता से जानने का विज्ञान है। सांसारी विज्ञान ने चेतना के साम्राज्य पर भी घुसपैठ आरम्भ कर दी है। पर दोनों का आनुपातिक व संतुलित सहभागिता ही दो सामान्तर रेल की पटरियों की तरह से, मानव जीवन की गाड़ी को सुगमता से गंतव्य तक पहुंचा सकती है। कलिमय युग, Machine Age, में मानव इतना व्यस्त व संवेदनहीन हो गया है कि अपनी चेतना की ही आवाज़ सुनने का समय ही नहीं है। मानव को अपरा विज्ञान का बहुत दर्प हो गया है पर अभी तक और आगे भी चेतना या चेतन तत्व को जानने या मापने का कोई भी यंत्र आविष्कृत नहीं हो पाया है न हो पाएगा क्योंकि चेतना, चेतना को जानती है चेतन तत्व से योग ही चेतन तत्व की अनुभूति कराता है।

विज्ञान ने बहुत कुछ प्राप्ति कर ली है पर नहीं जान पाता कि क्यों कुछ प्रयोग सभी कुछ ठीक होने पर भी असफल होते हैं दुर्घटनाएं या असंभावित त्रासदियां होती हैं। जिनके उत्तर जागृत चेतना वाले के पास होते हैं जिनकी सहायता से अनावश्यक ऊर्जा हनन व वैश्विक ऊष्मा व मानसिक प्रदूषण का कारण जान उनसे उबरने की साधना की जा सकती है।

बाह्य विज्ञान व आंतरिक आत्मानुभूति दोनों ही मानव अस्तित्व के दो सर्वसमर्थ सर्वशक्तिवान सर्वज्ञानवान व सर्वविद्यमान विधाएं हैं। दोनों का ही सही सच्चा, सत्य ज्ञान मानवता के लिए कल्याणकारी बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

वैज्ञानिक आविष्कार और आत्मानुभूति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों ही मानव जाति के शारीरिक व आत्मिक उत्थान के लिए प्राणवायु समान हैं। वास्तव में प्रत्येक नया आविष्कार इस बात का प्रमाण है कि उसके पीछे आत्मानुभूति व ध्यान की समग्रता से परिपूर्ण मानव मस्तिष्क ही होता है।

विज्ञान हो या आध्यात्म अपूर्णता तो हर क्षेत्र में आती ही है। मानव के अंतर में व्याप्त विकृतियां ही इनका सदुपयोग करने की अपेक्षा दुरुपयोग की ओर ले जाती हैं, तो पहले सच्चा आध्यात्मिक मानव बनना होगा। मानवाकृत धर्मों को तो सभी ने तोड़-मरोड़ दिया ही है पर फिर भी कुछ सत्य प्रेम कर्ममार्गी अपना कर्तव्य कर्म जानते हुए सदा ही उचित और सही अनुचित व गलत का मर्म, भेद समझते हुए ही अपने सत्य पर दृढ़ रहते हैं। ऐसे दृढ़निश्चयी ही ब्रह्माण्ड का ज्ञान विज्ञान व प्रकृति का सटीक न्याय विधान-जानकर समाज का व मानवता का मार्गदर्शन करने को उदाहरण स्वरूप बनकर समयानुसार अवश्य ही प्रकट होकर असत्य का अंधकार काट सत्य का प्रकाश फैलाते हैं।
यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे