मानव जब वेद व सत्य, विज्ञान व तथ्य, विद्या व स्वाध्याय और ज्ञान व विद्वता इन चारों कोणों से परिपूर्ण हो चतुर्भुज रूप होता है तो उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व पूर्णतया प्रकाशवान हो जाता है। ऐसे मानव का परम बोधि (सुप्रीम इंटेलिजेंस) से तारतम्य स्थापित हो जाता है। उसकी चेतना का योग परम चैतन्य स्वरूप से हो जाता है। यही होती है मानव के उत्थान की पराकाष्ठा। इस स्थिति को प्राप्त मानव के द्वारा युग चेतना को जागृत करने वाले संदेश व कर्म, सत्य की स्थापना के लिए प्रवाहित होने लगते हैं। सब कुछ इतना स्वाभाविक होता है कि उसमें कुछ भी सोचना, समझना, पूर्व नियोजना व गणना आदि होती ही नहीं। मानव ब्रह्माण्डीय चेतना, यूनिवर्सल कांश्यसनेस का मूर्तरूप बन जाता है।
यही सत्य है आत्मा के हंस होने का। हंस देवी शारदे का वाहन है जो वेद माता सरस्वती के कृपा पात्रों को ईशत्व से लयात्मक होने के लक्ष्य तक पहुंचाता है। वेदशास्त्र व योग आदि द्वारा परमहंस की स्थिति तो प्राप्त की जा सकती है पर पूर्णता से एकात्म केवल उसी का होता है जिसकी आत्मा हंस हो जाती है। नीर-क्षीर वाला विवेक जागृत हो सब कुछ सत्यं शिवं सुंदरम् हो जाता है। ऐसे मानव को परमानंद के लिए तथा अन्य आत्माओं को सत्य के दर्शन से अभिभूत करने के लिए किसी भी बाह्य आडम्बर या युक्ति की आवश्यकता नहीं होती।
हंस जब अपनी दरांतीदार चोंच में दूध मिला पानी लेकर बाहर उलीचता है तो चोंच की एक ओर से एकदम स्वच्छ जल और दूसरी ओर से शुद्ध दूध अलग होकर निकलता है दूध का दूध, पानी का पानी। हंसवान आत्मायुक्त मानव के समक्ष जब कोई भी ज्ञान अनुभव या परिस्थिति आती है तो उसमें से वह परमात्मा के सच्चे संदेश का मोती बीन लेता है और यही उसकी आत्मा की शक्ति बढ़ाने की वह कुंजी है जो सम्पूर्ण सृष्टि के रहस्यों का द्वार खोल देती है। पराशक्ति से संयोग कर धरा पर सत्य, प्रेम व प्रकाश के प्रसार के लिए अचूक शक्ति का स्रोत बहा देती है। अंधकार काटने को तेजस्वी व्यक्तित्व प्रदान करती है। पराशक्ति प्राप्त हंसात्मा में दोनों शक्तियों का मिलन हो जाता है। पूछने वाली और उत्तर देने वाली। कोई भी प्रश्न शंका या दुविधा मन में उठते ही अन्तर्मन से एकदम खरा सत्य की कसौटी पर कसा उत्तर उभरकर आ जाता है जो समय की मांग के अनुसार ही होता है। सही सार्थक भरपूर व परमानंद में जीवन जीने के लिए चाहिए पराशक्ति का साथ, मन की निश्छलता व हंसमय जीवात्मा का सत्संग जो हो गई है प्रभु का दीया (दीपक) हंसगीत:-
मैं आत्मा हूँ आत्मा ही तो हूँ
आत्मा में पूर्णतया निमग्न संतुष्ट
आत्मा के ही गुणों में रमने वाली
आत्मा से ही खेलने वाली, बातें करने वाली
सबकी आत्माओं से सम्पर्क साधने वाली
उसी को अनुभव कर मगन रहने वाली
आत्मा के ही गुणों की किरणें
विस्तीर्ण करने को
यह शरीर प्रभु का ही दिया
हो गया प्रभु का ही दीया-दीपक
यह होता तभी है जब मानव का पूरा का पूरा अस्तित्व सत्य कर्म प्रेम व पूर्ण समर्पण वाली शक्ति से दैदीप्यमान होता है। एक शुचितापूर्ण प्रकृति के मंदिर जैसा जिसमें स्वत: ही ईश्वरीय दिव्य सत्ता विद्यमान हो अपने ही कार्यों को मूर्तरूप देती है और साधन देती है ओज तेजस्विता मधुरतायुक्त ऐसा आकर्षक स्वरूप जो सरस्वती की कृपा से उनको हंस की तरह सत्यता का मोती चुगना सिखा दे। सत्य का पथ्य-भोजन करा शक्ति रूप बना, असत्यता व कुरूपता विनष्ट करने का बल दे। उनको जो भी उनके सानिध्य व समर्पण में हो जाए।
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ