आत्मनिर्भर हो अहं-निर्भर नहीं

आत्मनिर्भर हो अहं-निर्भर नहीं

हे मानव !
आत्मवान बन। अहम् जरूरतमंद है आत्मा नहीं। अहम् है अपने को वही जानना, मानना तथा विश्वास भी करना जो तुम वास्तव में हो ही नहीं। अहम् का उपयोग उत्थान के लिए आधारभूत शक्ति के रूप में करना है न कि कर्त्तापन के दंभ व अहंकार में। जब प्रमाद, आलस्य, दु:ख, संताप, क्रोध, विषाद, हिंसा आदि स्थितियाँ हम पर हावी रहती हैं तो हम अपनी सहज स्थिति में नहीं रहते। कोई और ‘स्वयं’ हमारे आत्मवान सत्य और दिव्यता के बीच आ जाता है यही कोई और ही अहम् है। अहम् एक दुर्बलता है उत्थान को सीमित करने और रुकावटें पैदा करने की। अहम् सदा दूसरों की स्वीकृति चाहता है और इस प्रकार की आत्मतुष्टि में बहुत ऊर्जा व्यय होती है। जो मानव आत्मगुणों में रम आत्मा की विभूतियों के अनुसार जीता है और प्रकृति जैसे बदले में कुछ पाने के भाव से रहित होता है वही आनन्द विस्तार के लिए अपने को मानव कल्याण के लिए अर्पण करता है। उसकी न कोई मांग होती है न किसी से स्वीकारोक्ति की आकांक्षा। वैराग्य की चरम स्थिति में होने के कारण यह संभव होता है।

ऐसी परमावस्था में पवित्र प्रेम का वह शक्ति रूप उभरता है जो सांसारिक स्वार्थमय भावों से परे होता है। अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं या विचारों को हवा देने के लिए कुछ प्राप्ति की इच्छा से द्वेष या असहमति जताना या नियंत्रण करने की इच्छा रखना कभी भी पवित्र प्रेम नहीं दर्शाता, यह सब मोह की उत्पत्ति का कारण है और मोह ही आत्मा को ढकता है। यही मोह अज्ञान की उन परतों का निर्माता है जो हमारी सत्यमयी आत्मशक्ति के प्रस्फुटन में गतिरोध लाता है आत्मवान होने से रोकता है।

अहम् और कर्ताभाव के कारण हम ‘जाने भी दो’ इस भाव में नहीं जीते या कुछ को छोड़ नहीं पाते क्योंकि हम यह सच्चाई जानते ही नहीं कि छूटना या अलग होना भी तो समय की ही बड़ी सुंदर परीक्षाएँ हुआ करती हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि हम अपने सत्य स्वरूप में कितना स्थित हैं, संयुक्त हैं। अलगाव में व्यथित हो अपना सत्य रूप छोड़ हम कुछ और हो जाते हैं इसी कुछ और होने वाले अस्तित्व को ही कष्ट होता है और यही कष्ट मोह का कारण बनता है।

आत्मा, मोह और भय दोनों से परे है। आत्मा का चिरंतन गुण है सत्य, प्रेम व प्रकाश का विस्तार और इसके लिए उसे किसी अन्य बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती। अहम् और कर्त्ताभाव छोड़ने पर ही हम अपने सत्य रूप में स्थापित होते हैं। हम आलोचना, विवेचना, दूसरों की गलतियाँ सुधारना, परामर्श या निर्देश देना छोड़ देते हैं चाहे कोई हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरे या नहीं। यही पहला सोपान है आत्मा के गुणों को जानने का। तो नियंत्रण की इच्छा त्याग मुक्ति की आकांक्षा रखे। नियंत्रण की प्रवृत्ति से द्वेष व ‘जाने भी दो’ के भाव से प्रेम उपजता है। हे मानव ! आत्मवान होकर प्रेम और प्रकाश का प्रसार कर, यही तेरा सहज गुण है।
यही सत्य है !!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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