मानवता का सफाया स्वर्ग प्राप्ति हेतु
कलियुग में आतंकवाद एक अमरबेल की तरह सम्पूर्ण मानवता पर छाता जा रहा है। कहां नहीं है यह राक्षस, निम्नतम स्तर से लेकर उच्चतम स्तर तक पूरी मानवता इससे त्रस्त है। धमकाकर डराकर उकसाकर बहलाकर दबाव डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना, अपनी पाश्विक प्रवृतियों को तृप्त करना, मानव अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा है। इसके इतने प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे व्याप्त हो गये हैं कि बिना अपराध बोध के जीवन जीने की शैली ही बनते जा रहे हैं।
हाँ जब बड़े वीभस्त और भयंकर कांड होते हैं तो सब जनता मीडिया नेता धार्मिक गुरु ज्ञान बांचने लगते हैं कि आतंकवाद समाप्त होना चाहिए। अरे पत्तों और टहनियों को काटने से क्या होगा। आतंकी मानसिकता के बीज तो समाज में लगातार बोए ही जा रहे हैं जो वृहद् रूप धारण तो करेंगे ही।
स्कूलों में नंबर कम आने का डर दिखा ट्यूशन से पैसा ऐंठना। कालेज में दाखिला ना देने की धमकी देकर तगड़ी रकम वसूलना। चिकित्सक डरा कर महंगे से महंगे उपचार के लिए धन घसीटते हैं नेता टिकट के नाम पर और गली गली दादा भैय्या जी ठाठ से वसूली करते हैं। कोई अपने ही श्रम से कोई उद्योग प्रारम्भ करे तो हर विभाग के लोग निचोड़ने आ पहुंचते हैं। धर्म के ठेकेदार स्वर्ग लोभ और नरक का भय दिखाकर राजसुख पाते हैं। यही है आतंक का सूक्ष्मरूप जो अब वृहदाकार हो गया है।
कुछ अनुचित तरीकों से धन कमाने, कुछ शक्ति प्रदर्शन, कुछ सत्ता विस्तार, कुछ अहम् और कुछ धार्मिक उन्माद के कारण आतंक फैलाते हैं। मानवों को पैसों से खरीदकर मनचाहा नचाने को कठपुतलियां बनाया जा रहा है। मानव ने पहले तो परिश्रम से आराम सुख सुविधा हेतु धन कमाया, फिर भोगों का जो चस्का लगा तो अनुचित रूप से धन उगाही प्रारम्भ हो गयी। जब भोगों से भी तृप्ति ना हुई तो उत्तेजना व सनसनी की अनुभूति पाने को घृणित व कुत्सित क्रियाएं शुरू हो गईं और अब धन शक्ति बुद्धि विज्ञान शस्त्रों सबका प्रयोग इस भयावह स्थिति को पहुंच गया है कि मानवता त्राहि त्राहि कर उठी है। कर्तव्य कर्म को कोई नहीं जान रहा सबको अधिकार चाहिए ना मिले तो छीन के लो मार के लो नहीं तो नष्ट भ्रष्ट ही कर दो। यही संस्कार जड़ें जमा रहे हैं अज्ञान के अंधकार में राह भटके जीवों के अंदर। आज के हीरो वही जो निम्नस्तरीय दहशत फैलाकर प्रचार माध्यमों पर भी छाया रहे, बदनाम हुए तो क्या नाम ना होगा।
मानव की मानसिकता में अशान्ति विक्षोभ क्रोध और अराजकता के प्रचंड मापदण्डों द्वारा प्रकृति ने अब अहम् व अज्ञान की नींद में ऊंघते मानव को घेर लिया है जागृति हेतु । क्योंकि अब सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व की ओर रूपान्तरण व परिवर्तन अवश्यंभावी है। सम्प्रदायों व धर्मों के नाम पर सत्ता विस्तार मानव के हित में नहीं है। दानवीय शक्तियों से बड़ी शक्ति तैयार करने के लिए सत्य की सेवा, सही नीयत व सत्यमयी आकांक्षाओं वाले मानवों को सहयोग व बढ़ावा देना होगा। सत्य व प्रेम का प्रसार मानवता की सबसे बड़ी सेवा है।
प्रकृति के नियमों पर आधारित सत्यधर्म केवल एक ही है जो इंगित व निर्देशित करता है कि सबकी सहायता करो पूर्ण विकास हेतु, उनकी प्रकृति, व्यक्तिगत क्षमताओं, शारीरिक मानसिक योग्यताओं के अनुसार। कोई भी ऊंचा नीचा या बड़ा नहीं। सबको अपना धर्म स्वयं ही निश्चित करना है। धर्म का सही मार्ग उन सिद्धांतों पर आधारित है जिनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संचालित है। जो सभी घटकों को संतुलित व नियमित कर उत्थान व आनंद की ओर अग्रसर रखते हैं। इसके लिए सभी को बचपन से ही प्रशिक्षित करना होगा कि अपनी सोच को ब्रह्माण्डीय- यूनिवर्सल बनाएं, मेरे तेरे अपने पराए से ऊपर उठकर। प्रत्येक अपूर्णता झूठ व अनुचित क्रियाकलाप कुव्यवस्था जो शैक्षणिक आर्थिक सामाजिक राजनैतिक व धार्मिक संस्थानों में व्याप्त गए हैं उनसे पूर्णतया असहयोग करें।
पर प्रकृति का नियम है कि जितनी दानवता पनपती है उतनी दिव्यता भी कहीं ना कहीं पनप रही होती है जो अति होने पर सही मार्गदर्शन देने हेतु अवश्य ही सत्य धर्म प्रेम व प्रकाश का मार्ग दिखाती है। अब कर्मचक्र पूरा होने को है, सत्यमेव जयते होगा ही। यही होता है संभवामि युगे युगे।