अर्धनारीश्वर विपरीत ऊर्जाओं का सौन्दर्यमय समन्वय

इस अद्भुत सत्य को किस प्रकार विद्रूपता का आवरण डालकर गरमागरम बेचने योग्य पदार्थ बनाया जा सकता है, इसका प्रमाण मिला जब कुछ वर्ष पहले अर्धनारीश्वर रूप, Androgyne, पुस्तक विमोचन के बारे में व उस पुस्तक के कुछ उद्धृत अंशों को पढ़ा। जिससे पुस्तक का आशय समझा कुछ हद तक।

ऐसा लगा कि भारत की सर्वोच्च वेद-संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाने में पाश्चात्य सभ्यता की कुछ कुरीतियों में आकंठ डूबे अधकचरे बुद्धिजीवी सतही व ओछे प्रचार के लोभ में किस हद तक पतन के गर्त में डूब सकते हैं। समलैंगिक विकृत लैंगिकता व अप्राकृतिक विधियों से इंद्रिय तृप्ति सुख लूटने की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए प्रतीकात्मक शक्तिरूपों के आत्मानुभूत ज्ञान को घृणित कामवासना के स्तर पर ला पटकते हैं।

क्या स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं ये प्रचार के भूखे, अप्राकृतिक व अनैतिक नर-नारी सम्बन्धों को उत्कृष्ट मानव संरचना का ज्ञान देने वाली प्रतीकात्मकता के साथ जोड़कर। प्रत्येक दिव्य विभूतियों के चित्र-चित्रण एक अनुपम वैज्ञानिक संदेश लिए हुए हैं जो कि पाश्चात्य के तथ्यों पर आधारित विज्ञान की समझ की पहुँच से बहुत परे ज्ञानमयी संहिता से युक्त हैं। जिन्हें केवल एक आत्मानुभूत योगी मानव ही समझ सकता है और इनका सत्य केवल सुपात्र को ही बता सकता है।

अर्धनारीश्वर सौन्दर्य व संतुलन की दिव्यता का अद्वितीय प्रतीक है। जिस मानव ने अपने अन्दर ही नर-नारी दोनों के प्रकृति प्रदत्त शिव एवं शक्ति के दिव्य गुणों का संतुलन कर लिया हो और उसे किसी बाह्य उपक्रम या आधार की आवश्यकता ही न पड़े अपने उत्थान व आनन्द को चरमोत्कर्ष व परमानन्द तक पहुँचाने के लिए वही मानव दिव्य अर्धनारीश्वर स्वरूप होता है जो सदा पूजनीय तथा वन्दनीय है।

प्रकृति ने नर-नारी दोनों को उनकी रचना के अनुरूप क्षमताएँ व गुणवत्ताएँ दी हैं पर कुछ गुण नारी के नर में और नर के नारी में सुप्तावस्था में सदा ही रहते हैं। नर-नारी दोनों का ही इनको भी साध लेना, समय की माँग के अनुसार इनके अनुरूप कर्म करने की क्षमता जगा लेना जीवन को सौन्दर्यमय प्रेममय व करुणामय बना देता है। न कि मन में यह ठान लेना कि पुरुष को ऐसा ही करना होता है और नारी को वैसा ही करना होगा। यह एक ऐसी पक्की रूढ़ि केन्द्रिता की उत्पत्ति है। रूढ़िवादी मान्यताएँ व परम्पराएँ केवल समाज की पुरुष प्रधान अहम् केन्द्रिता की ही उत्पत्ति है।

एक-दूसरे को नकारकर अपनी संतुष्टिï का कोई अन्य अप्राकृतिक घृणित कुत्सित या वीभत्स उपाय ढूँढ़ने में ऊर्जा हनन करना और फिर उसकी वकालत भी गर्व से बखूबी करना। यहाँ तक कि उसे शिव पार्वती रामकृष्ण परमहंस आदि उन्नत आत्माओं के उदाहरण देकर उचित व मान्य ठहराना रुग्ण मानसिकता का ही परिचायक है। आत्महनन इस सीमा तक कर लेना कि प्राकृतिक नियमों की अवहेलना व उल्लंघन करने पर भी आत्मग्लानि न होना। आत्मग्लानि तो दूर उसे प्रामाणिक सिद्ध करने में सालों शोध करके पुस्तक प्रकाशित करके साहित्यिक दर्जा दिलवाने के लिए सामाजिक ज़हर फैलाने के लिए लाखों रुपये पार्टी व शराब में फूँक देना।

इसी प्रकार के तथाकथित बुद्धिजीवी संभ्रान्त नव-धनाढ्य कलियुगी असुरों ने मानवता को अज्ञान के अंधकार में धकेलने का बीड़ा उठाया हुआ है। असुर भी जो करते थे सामने ही होता था मगर ये तो आध्यात्म का लबादा ओढ़े बुद्धियाँ भ्रष्ट करने का वो बीज बो रहे हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी दुर्गन्ध फैलाए व सत्य को जानने में और भी भटकाव पैदा कर दे। ऐसे लोगों से तर्क-वितर्क व्यर्थ ही है क्योंकि ये सत्य से कोसों दूर हैं। इधर-उधर से अंग्रेजी किताबों से पढ़कर-सुनकर सुनाकर नकल कर अपनी ही विकृत मानसिकता से चटपटे मसालों में लपेटकर अपने ही जैसे पाश्चात्य रंग में रंगे आधुनिकता का दंभ भरने वालों के सामने परोस देते हैं। जो एक हाथ में शराब और दूसरे हाथ में कोई नंगी कमर भींचे अपने को धन्य समझते हैं कि ऐसा दुर्लभ ग्रंथ उनके हाथ में है जो उनकी प्रत्येक कुत्सित चेष्टा को दिव्यता व सामाजिक स्वीकृति से जोड़ देगा।

वो इस सत्य से अनभिज्ञ हैं कि जब प्रकृति का तांडव होगा तो प्रत्येक अपूर्ण तथा अप्राकृतिक तत्वों की वो दुर्गति होगी जिसकी उपमा नरक की किसी भी यातना से ना दी जा सके। क्योंकि जितनी भयंकर गिरावट आती है उतना ही सशक्त उत्थान कहीं न कहीं अवश्य पनपता है मानवता को सत्य का प्रकाश दिखाने को। क्योंकि सत्य, विकृति कामियों द्रव्य घमंडियों व झूठ प्रचार लोभियों का काल बनके ही रहता है चाहे वो कितनी भी ऊर्जा अपने घृणित कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने में लगा लें।

प्रणाम कभी भी अपने भारत की उत्कृष्ट वेद-संस्कृति का इस प्रकार से अपमान व उपयोग कुरूप व असंगत क्रियाकलापों को धर्मसम्मत ठहराने में नहीं करने देगा। बहुत हो गया बुद्धि विलास से विकृतियों को वकीली व व्यावसायिक मानसिकता से जोड़-तोड़ कर सत्य प्रमाणित कर अपना उल्लू सीधा करना। पुस्तकों के नाम पर लेखनी सरस्वती माँ के ब्रह्मास्त्र का दुरुपयोग।

जो कलम सत्य उजागर करने को प्रगति के आह्वान को नई पीढ़ी को सुनहरी विरासत देने को तत्पर होनी चाहिए उसका अवांछनीय प्रयोग असत्य, घृणा व अंधकार फैलाने के लिए कदापि नहीं करने दिया जाएगा। इसके एकदम विपरीत, सत्य प्रेम व प्रकाश के प्रसार के लिए प्रणाम की यह कलम सदा चलेगी जिससे आत्मा जागे और अपूर्णता के विनाश का जन-अभियान अस्तित्व में आए।
सत्यमेव जयते

  • प्रणाम मीना ऊँ

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