अर्जित ज्ञान की सच्चाई

हे मानव ! ज्ञान का महत्व व सच्चाई जानकर अपने ऊपर काम करके ही सत्य को जाना जा सकता है। आज तक का जितना भी ज्ञान ध्यान धरती पर अवतरित हुआ है वो जाना जा चुका है। जो कि थोड़ा-थोड़ा प्रत्येक मानव ने अपनी-अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं व उत्थान के हिसाब से प्राप्त कर लिया या चुन लिया और उसी को अपनी बुद्धि में कैद कर उसी का चिन्तन मनन कर उसे ही सब कुछ और सही जानकर उसी को बखानना व उसी की वकालत करना शुरू कर दिया। उसी को मनवाने में सारी ऊर्जा लगा दी और जितनी बड़ी संख्या में लोग उससे प्रभावित हुए उसी को अपनी सफलता मान लिया।

जिसके पास जो भी ज्ञान है उसी के अनुसार विशेष रूप वेशभूषा या छवि अपनाकर अपने-अपने सम्प्रदाय बना लिए और उन्हें भी विशेष नाम दे दिए। कोई सूफी कोई गुरु कोई आचार्य वेदान्ती द्वैतवादी अद्वैतवादी नास्तिक आस्तिक आदि-आदि और भी अनेकों उपाधियाँव धर्म-मार्ग जिससे मानव यह समझ जाए कि कौन, कौन सी सोच वाला है। बस उनको ही परिभाषित करने व उनके ज्ञान की व्याख्या करने और समझने व समझाने में इतना समय धन और ऊर्जा लगाई जा रही है कि यदि उसे सच्चाई से सही दिशा में लगा दिया जाए तो मानव और मानवता का कल्याण अवश्य ही हो जाए।

तो हे मानव ! पहले हुए युगदृष्टाओं के बताए व सुझाए मार्ग और ज्ञान पर चलकर स्वयं की व्याख्या कर अपना सच जान। इस क्षण तक का सारा ज्ञान कहीं न कहीं किसी न किसी मानव में अवश्य ही है। कुछ कहीं कुछ कहीं, उन्हें जोड़ना और उनके बीच की कड़ी ढूंढ़कर एक करना तो दूर बल्कि दूरी बढ़ाने के उपाय किए जा रहे हैं। एक दूसरे की परीक्षा ली जाती है कि कौन कितना पहुँचा हुआ है, कितना सही है या कितना सफल है।

सारे ज्ञान का तात्पर्य लक्ष्य व सार्थकता तो इसी में है कि मानव अगले क्षण का ज्ञान ध्यान जान ले कि अब परमचेतना मानव से क्या चाहती है क्या करवाना चाह रही है कि उसका उत्थान व कल्याण हो। परिवर्तनशीलता व निरन्तर उत्थान ही एक स्थाई शाश्वत सत्य है। इसका भागीदार बनने या इसकी एक कड़ी बनने निष्कर्ष या सुफल हेतु समय की मांग को जानना ही समस्त अर्जित ज्ञान को जीने का फल होना चाहिए।

उपनिषद में कहा है अज्ञानी का दीया तो फिर भी जल सकता है कभी न कभी पर उस ज्ञानी का नहीं जो अपने ही ज्ञान में रम गया है। तो हे मानव अपने ऊपर सत्यता से कर्म कर, प्रकाश स्वयं ही दिख जायेगा तेरी अपनी क्षमताओं और ग्राह्य शक्ति के अनुसार।

अपने पर काम न करने का बहुत अच्छा बहाना है तेरे पास कि जो तेरी बुद्धि को सन्तुष्ट करेगा व ठीक लगेगा तू वही रास्ता अपनाएगा। पर विडम्बना यही है कि तू अपनी बुद्धि को पूर्णतया कभी भी सन्तुष्ट नहीं होने देता, अपने ऊपर काम करने से बचने हेतु।

प्रणाम के सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश के मार्ग को तो कोई भी नकार नहीं सकता इसी में से कोई एक ही अपना कर साधना तो प्रारम्भ कर। हाँ इस साधना के मार्ग पर कोई बाधा आए तो अवश्य ही कोई मार्गदर्शक अपना ले। पर मार्गदर्शक को भी तो तू अपनी ही व्यक्तिगत समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए या अपनी भोगी मानसिकता से उत्पन्न इच्छाओं की तुष्टि के लिए ही उपयोग करना चाहता है। इसके लिए बहाना भी बहुत बढ़िया बना लेता है कि ”मेरी सांसारी समस्याएँ और कष्ट दूर होंगे तभी यह मार्ग अपनाऊँगा” या ”यह तो बहुत ऊँची-ऊँची बातें हैं” आदि-आदि। आज तक न तेरी समस्याएँ समाप्त हुई हैं न ही तेरा बाहर से कोई सहायता या चमत्कार दिख जाने का लालच ही कम हुआ है।

पहले उन्नत हुए मानवों ने क्या कुछ नहीं बताया है उसी में से कुछ भी अपना ले। अपना पढ़ा हुआ संचित किया हुआ रटा रटाया ज्ञान मत बघार या उनके वचनों को प्रवचन न बना।

अब तक का अवतरित ज्ञान सब भूतकाल बन गया है उससे कुछ सीखकर, आज का अनमोल क्षण उसी के अनुसार भरपूर और अपनी सामर्थ्यानुसार पूर्णता से जीकर अनुभव कर, तभी तू आने वाले क्षण का सत्य महत्व संदेश व निर्देश जान पाएगा। इस, अभी के क्षण में ही अगले क्षण का सत्य निहित है। अपना व अपने जीवन में आने वाले सभी क्षणों का सत्य जान समझकर उसी के अनुसार अपना कर्त्तव्य कर्म निश्चित कर निश्चिंत हो जाना ही सही धर्म-कर्म है। अर्जित ज्ञान की साधना करके विवेक जगाके जागरूक व चैतन्य होके जीवन जीना ही मानव जीवन को सार्थक करना है।

तू ही सागर है
तू ही किनारा
ढूँढ़ता है तू
किसका सहारा
जिसके साथ प्रभु का हाथ
उसे चाहिए किसका साथ
सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश
रख इन पर पूर्ण विश्वास

यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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