अदृश्य आतंकवाद : दक्षिण भारत यात्रा के अंश- भाग : 1

आजकल चारों ओर से और सभी प्रचार माध्यमों से आतंकवाद शब्द की गूँज सुनाई देती रहती है। यहाँ हमला हुआ वहाँ बम फूटा कहीं आक्रान्तों का आक्रमण,कहीं आपसी सिरफुटौव्वल जिधर देखो हिंसा का तांडव। जिनकी सारी सूचनाएँ बहुतायत से मिलती ही रहती हैं। जिस आतंकवाद का विरोध या प्रतिकार होता है कुछ मुठभेडें होती हैं वहाँ तो पता लग ही जाता है कि आतंकवाद है, घुसपैठ है, वहाँ सुरक्षा भी कड़ी की जाती है क्योंकि यह प्रत्यक्ष और दृश्य आतंकवाद है। पर उस अदृश्य आतंकवाद का कहीं भी विवरण या उल्लेख नहीं जो आराम से पसर कर भारतीय संस्कृति को निगल गया है और निगल रहा है। वो निश्चिन्त होकर अपने पैर पसार रहा है क्योंकि उसका विरोध या निराकरण करने वाला कोई सजग प्रहरी है ही नहीं, सब बखानने में लगे हैं।

यह भारत प्रायद्वीप के निचले दक्षिणीय पश्चिमी तटों, क्षेत्रों व कन्याकुमारी तक स्पष्ट दिखाई देता है और कुछ भी समाधान या निवारण होने का कोई भी लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता। एक अजीब-सी चुप्पी छाई है जो शान्ति तो कदापि नहीं कही जा सकती। कोई भी प्रतिरोध या प्रतिकार अपनी सनातन भारतीयता को अक्षुण्ण रखने का या उसे सँजोए रखने का कहीं भी दिखाई ही नहीं देता। सब स्थानों पर भारतीय अनमोल धरोहरों व भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्ण उदासीनता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कैंसर अपनी जड़ें चुपचाप पसारता जा रहा है। एक अँधेरा साया नि:शब्द फैलता चला जा रहा है। एक सत्यमय संवेदनशील राष्ट्रप्रेम व सनातन धर्म संस्कृति से ओतप्रोत हृदय के लिए यह कितना मर्मान्तक पीड़ादायी अनुभव है, यह केवल मुक्तभोगी ही जान सकता है।

कलियुग प्रचार का युग है। सब अपने-अपने प्रचार में ही लगे हुए हैं। खूब पैसा खर्च कर औरों को भी खरीदकर उनसे भी वही करवा रहे हैं जो वो चाहते हैं। जाने-अनजाने पैसे के लालच में लोग कितनी बड़ी साजिश, एक भयंकर षड्यंत्र, एक सोची-समझी चाल के शिकार हो रहे हैं। इसके बारे में सोचने समझने का न तो समय है सत्तालोलुपियों के पास और न ही देशप्रेम का सच्चा जज़्बा है देशहित का दम भरने वाले समाजसेवियों के पास। कहाँ हैं वो निर्भय साहसी सही कर्म की दिशा दिखाने वाले उद्यमी व पुरुषार्थी, कहाँ है देशभक्ति से ओतप्रोत मानव जो इस अदृश्य आतंकवाद से जूझ पड़ें!

कहने को तो सब चीखते-चिल्लाते रहते हैं भारत महान है इसकी संस्कृति महानतम् है, सब खोखली भाषणबाजी मगर उसकी सुरक्षा की क्या व्यवस्था चल रही है इसका न तो किसी को ज्ञान है न ही परवाह है, केवल अपना-अपना वर्चस्व बनाए रखने में सारी शक्ति तन-मन-धन लगाने वाले तथाकथित भारत व उसकी संस्कृति को बचाने का नाटक करने वाले कर्णधारों को।

संस्कृति बचाने के नाम पर मंदिरों पर कब्जा जमाकर, घंटियाँ बजाकर, पूजा-अर्चना के नाम पर धन बटोर-बटोर कर, कर्महीन होकर बैठे रहना ही धर्म हो गया है। मंदिरों में कैमरा मोबाइल आदि कुछ भी मत ले जाओ। शायद ये उनकी बुद्धि के अनुसार सुरक्षा की व्यवस्था होगी। पर वहाँ जाकर लगा कि जो लूटपाट भ्रष्टाचार मंदिरों में मचा हुआ है उसकी सूचना भी बाहर न जाए यही कारण प्रमुख है।

मंदिरों में केवल भीतरी गर्भगृह में जिसकी विशेष पूजा- अर्चना होती है, केवल वही मूर्ति बची हुई है। बाकी चारों ओर गलियारों खम्भों प्रांगणों व चबूतरों पर लगी सभी कलाकृतियाँ, मूर्तियाँ व दीपस्तम्भ आदि गायब हैं, मन्दिर उजड़े पड़े हैं। सभी कमलपीठ सूने इधर-उधर पड़े हुए हैं ऐसे लुटे-पिटे मंदिरों में पूजा केवल दिखावा मात्र रह गई है। अन्य धर्मों के लोग अपने धर्मस्थलों से निकलकर चारों ओर फैल गए हैं और भारतीय लोग बचे-खुचे मन्दिरों में सिमटकर उसी की कमाई खाने में लगे हुए हैं। धर्म का खोखला ढिंढोरा पीट रहे हैं, हजारों मन तेल व खाद्यान्न पैरों में लुढ़क रहा है। चढ़ावा व प्रसाद पैरों में आकर गलियारे चीकट कर रहा है।

कहीं भी सेवा, प्रेम या भक्ति नज़र नहीं आती। एक अहंकारयुक्त आधिकारिक भाव से दर्शनार्थियों को दुत्कार, लताड़। प्रणाम-नमस्कार की जगह ‘हाय हेलो’, ‘इधर नहीं छूना’, ‘उधर नहीं जाना’, ‘जाओ समय समाप्त हो गया’ जैसा सब कुछ मशीनी व्यवहार। हाँ, कोई विशेष अफसर, नेता या व्यापारी हो तो न कोई नियम न समय की पाबन्दी भगवान छोड़कर उन्हीं की बंदगी शुरु। मंदिरों में प्रभु कैद हैं और उन पर टिकट लगा है जब पंडे चाहें उठाएँ सुलाएँ दरवाजे बन्द कर दर्शनों को मोहताज करें, उनकी मर्जी।
मन में आया-ओ बन्दे, इन मंदिरों में भगवान की या तेरी मज़ीर् नहीं चलती। पुजारी-पंडे दलाल हो गए हैं भगवान के भी। प्रेमभाव श्रद्धाभाव सत्संग संस्कृति नम्रता जाए भाड़ में जितनी वसूली होती है कर ली जाए, बस यही भाव छाया है। शायद यही प्रभु की माया है कि कलियुग में मानव मूर्तिपूजा छोड़ कर प्रकृति की पूजा करे मन में भाव भरे, मन में ही राम का कृष्ण का अपने-अपने आराध्य का ध्यान करे, मन को प्रभु का गर्भगृह और शरीर को मन्दिर बनाए। अपने रहने के स्थान को मंदिर का प्रांगण जान सँवारे व वहाँ सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश के दिए जला सत्य के प्रकाश से जुड़े। अज्ञान व असत्य के अन्धकार से बचे।
अब तो सबसे बड़ा कर्म-धर्म यही है कि ज्ञान और विवेक की तलवार से अपूर्णता को पहचान कर उस पर पूर्ण पुरुषार्थ से वार करें। किसी भी कुव्यवस्था व अनाचार के भागीदार न बनें ।
यही है सत्य धर्म योद्धाओं का कर्तव्य कर्म
सतयुग की ओर जाने का मर्म
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है
!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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