अदृश्य आंतकवाद

दक्षिण भारत यात्रा के अंश : भाग – 3

कन्याकुमारी होटल की खिड़की से बाहर दिखाई दे रहा है सागर का विस्तार ही विस्तार। हिन्द महासागर बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का संगम। हल्की-हल्की लहरें, सूर्य की किरणें, उन्हें छूकर अठखेलियाँ करती हुई शान्त ठहरी हुई। अथाह जलराशि ध्यान में लीन बदलाव की तैयारी जैसी शान्त नि:शब्दता।

श्री विवेकानन्द स्मारक व गांधी मंडपम में जाने का मन नहीं हुआ। पिछली शाम चक्कर लगा ही लिया था। अच्छी तरह समझ आ गया यहाँ भी वही हाल हो गया है जो ओरोविलियन और पांडुचेरी मदर के आश्रम का हुआ है। कोई भाव नहीं न कोई विचार विस्तार केवल एक भावहीन व्यापारिक-सा पर्यटक स्थल नक्शे पर दिखाने के लिए। न कोई इनका महत्व ठीक से बताता है न ही कोई इनके प्रति दिल से आदर दिखाता है। स्थानीय लोगों के लिए यह गौरव के स्थल नहीं व्यावसायिक केन्द्र मात्र हैं। केवल दानपेटियाँ रखी हैं और तथाकथित व्यवस्था चलाने वाले भिक्षुकों जैसे बैठे हैं। जगह घिरी रहे उनकी रोजी-रोटी चलती रहे। सब कुछ मशीनी कलियुगी…

क्या यही चाहा था गाँधीजी और विवेकानन्द जी ने जगह घेरो चबूतरे मंडप आदि बनाओ और भूल जाओ इनके बताए मार्गदर्शन को। ठीक है, थोड़ी-बहुत व्यापारिकता भी जरूरी है स्थान के रखरखाव हेतु पर पूछना उनसे है जो बड़े-बड़े लेक्चर भाषण व्याख्यान गोष्ठियाँ सेमीनार इन महान विभूतियों के बारे में आयोजित कर उनकी महिमा बखानते नहीं थकते। कहाँ हैं वो सब बुद्धिजीवी? क्यों इन स्थलों को जागृति संचार का माध्यम नहीं बनाते… क्यों साधना की कर्मस्थली नहीं बनाते… क्यों इतने महत्वपूर्ण व पवित्र स्थलों को अनाथ-सा छोड़ दिया है केवल एक पर्यटक-स्थल का लेबल लगाने के लिए…

बड़े-बड़े शहरों में बड़े-बड़े मंचों पर या वातानुकूलित कक्षों में बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं भारतीय संस्कृति बचाने की, सत्य राह दिखाने वालों की, मानव कल्याण की। पर उन सबकी सत्यता व खोखलापन इस प्रकार यात्रा करने, स्थानीय लोगों से मिलने, बातचीत करने और तथाकथित प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों को देखने से ही पता
लग पाती है।

कितना पिछड़ा हुआ व्यावसायिक अहम् केन्द्रित और भावहीन मशीन हो गया है मानव तटवर्ती सुदूर प्रदेशों में। सब जानते हैं सच्चाई सेवा प्रेम इंसानियत देशप्रेम मगर तटस्थ व भ्रमित हैं क्योंकि इनका उदाहरण कहीं भी नजर नहीं आता। इन्हें सही कर्म में लगाकर सही दिशा देने वाले कहीं नजर नहीं आते यदि हैं भी तो समुद्र में बूँद बराबर किसी दूरदराज कोने में छुपे हुए क्योंकि ऐसी व्यापारिक व राजनीति वाली संस्थाओं में उनका कोई स्थान नहीं।

भारत की राष्ट्रीयता व उसकी सनातन संस्कृति का दम भरने वाले कहाँ हैं… याद आ गई एक गीत की कुछ पंक्तियाँ:- जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ हैं कहाँ हैं

सुदूर तटीय गाँवों में सब दिशाविहीन हो अंधकार में घिरे हैं तभी तो जो जरा-सी भी सहानुभूति प्यार या सेवा देते हैं उधर ही झुकाव हो रहा है। एक जाल-सा फै लता चला जा रहा है उचित-अनुचित कर्मों की सीमा से परे। यही तो कहा था विवेकानन्द जी ने कि एक दूसरी ओर जायेगा तो एक इधर कम हो जाएगा। ज़ोर-ज़बरदस्ती से कभी कोई इधर-उधर नहीं हो सकता। हताश मानव मन आसरा ढूँढ़ता है जहाँ से मिलेगा वहाँ टिकेगा ही।

तो हे भारतीयों! जागो, तीर्थों व मन्दिरों में घंटियाँ बजाने व माथा रगड़ने, पहले से ही मुटाए कर्महीन पंडों को खिलाने उनकी दानपेटियाँ भरने, अपने-अपने नाम के छत्र-आभूषण चढ़ाने, पत्थर जड़वाने की अपेक्षा प्रभु के बन्दों को, अपनी मातृभूमि के बाशिन्दों को अपनाओ। ज्ञान प्रेम सेवा धन दान, जीने का ध्येय, सहयोग, प्रेरणा-जो भी देना है सुपात्रों को दो। सुपात्र कौन है आँखें खोलो और देखो। बाहरी लोगों के लिए भाई-भाई का नारा लगा लेते हैं पर अपनी ही मातृभूमि के लोगों की सुध नहीं लेते ।
वैसे तो आजकल सभी बहुत चतुर और विद्वान हो गये हैं, क्या इतना-सा सत्य समझ नहीं आ पाता कि सुपात्र कौन है। यह विवेक जगा लेना ही तो जागृति है कि भारत माँ के हित व गौरव के लिए क्या करना है और यह जानकर पूरी कर्मठता व पुुरुषार्थ से जूझना होगा, कोरे ज्ञान व लिखित समाधानों से कुछ नहीं होने वाला।

जागो! ओ स्वयं प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति के दम्भी ठेकेदारों, जागो! पहले अपने असली भारत को तो जानो, अरक्षित तटीय क्षेत्रों में क्या-क्या हो रहा है, क्या हाल हो गया है। बापू के विवेकानन्द के सपनों का भारत तरस रहा है, करवट ले रहा है अब तो उसके दर्द को समझो। यह तो एक पुकार है सत्ता मोह में लिप्त,धार्मिकता के नाम पर ऐश्वर्य बटोरने वालों, बड़ी-बड़ी संस्थाएँ समाज कल्याण के नाम पर बनाने वालों व भारत को मातृभूमि बता कर दिखावे के लिए साल में दो बार झंडारोहण कर वन्देमातरम्ï और राष्ट्रीय गान गाने वालों को।

अब समय आ ही पहुँचा है जब प्रकृति की न्याय-व्यवस्था असत्यता से जीने वालों के सारे कपटों के राक्षसों को उनके सामने ला खड़ा कर देगी। अब झूठ पाखंड ढोंग और खेल नहीं खेल पायेंगे, अपनी कर्मगति को प्राप्त होंगे। सत्य को उबरने के लिए किसी की बैसाखी नहीं चाहिए। समाज को सुधारने से पहले खुद सुधरो उदाहरण बनो उसी से काम होगा ।

हे मानव! तू कर्तापन के दम्भ में सत्ता पद-पदवी या महान समाज-सेवी के घमण्ड में न रह। सभी महान आत्माओं की दिखाई राह पर चल उनकी आवाज सुन उनके शब्दों का मर्म जान न कि पुस्तकें छाप-छापकर उन्हें बेचकर व्यापार बना। व्यावसायिकता बुरी नहीं पर विवेक रहित व्यापारिकता से कल्याण व उत्थान नहीं होता।

कोई कमी नहीं हैं सत्य माध्यमों की व साधनों की, केवल अर्जुन जैसे दृढ़निश्चयी महाबाहो मानव जो हताशा विषाद त्यागकर कर्म-धर्म को तत्पर हों और कृष्ण जैसा सारथी नेतृत्व जो सही दिशा में रथ हाँके ऐसा संयोग व सुयोग चाहिए। अब ऐसे सटीक संगम का समय आ ही पहुँचा है, यही प्रणाम का विश्वास है।
संभवामि युगे युगे …
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है
!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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