सात चक्रों का उत्थान ज्ञान

सात चक्रों का उत्थान ज्ञान

हे मानव!
अपने सत्य को जान, अपनी ही तराजू पर नाप-तोल कर। सूक्ष्मतम ज्ञान के तत्व सात हैं और गुण तीन। सात रंग, चक्र, स्वर, दिन, ग्रह, युगचेतना, मानव चेतना के सोपान, समुद्र, सूक्ष्म आकाशीय तल आदि सब सात। सप्तऋषि तारों के भी भिन्न-भिन्न सात ऋषि हर युग के अधिष्ठाता गुरु होते हैं जो सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को संजोए रहते हैं। सातों चक्रों का उत्थान कर इनसे संकेत संदेश व सूचनाएँ पाने के लिए सुपात्र होना होता है। सविता मंत्र के भी सात ही शब्द हैं-
ऊँ भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यम्
इन सबका मानव उत्थान से गूढ़ अन्तरंग व सनातन सम्बन्ध है। इसलिए इन सबका महत्व व वेद-विज्ञान जानकर जीकर अनुभव कर अपने आपको ध्यान-योग द्वारा परखना होता है।

प्रत्येक उत्थान के सोपान पर मानव में क्या शारीरिक, मानसिक व आत्मिक परिवर्तन व लक्षण परिलक्षित होते हैं, यह वही बता सकता है जिसने यह सब जीया हो। चक्र ऊर्जा केंद्र हैं व अंत:स्रावी ग्रंथियों-ग्लैण्ड्स से निकले हारमोन्स की हारमनी-संतुलन के भी स्थल हैं।

सात चक्रों के सोपान : मूलाधार-रीढ़ की हड्डी के अंतिम छोर पर मल मूत्र निष्कासन व उत्पत्ति का मूल। जानवर व मानव में समान। इस चक्र पर मानव पशुवत प्रवृत्तियों में स्वभावगत लिप्त रहता है। यहाँ उत्थान की शक्ति सुप्तावस्था में होती है। भोग-विलास व इंद्रिय सुखों में संलग्नता इस चक्र के ऊपर उठने में बाधक हैं। जिसे यम नियम वाले संयम के तेज के द्वारा ही ऊर्ध्वगामी किया जा सकता है।

स्वाधिष्ठान-मूलाधार से ऊपर नाभि के नीचे यह चक्र इच्छाओं व कर्मों का केंद्र है। मानव अपनी इच्छाओं और कर्मों में तालमेल बिठाने के चक्करों में ही जीवन बिता देता है। इनमें संतुलन कर तृप्ति व पूर्ण संतुष्टि पाकर ही अपने को अच्छा इंसान समझ पाता है मानव। कर्म योग की इस गति को जानकर ही मणिपूर चक्र जो नाभि प्रदेश में है उस तक उठता है मानव। जहाँ अंदर की ज्ञान पिपासा जागृत हो उठती है मन ज्ञान में रमने लगता है। ज्ञान ज्योति जागृत होने पर तेजोमय व्यक्तित्व विकसित होने लगता है। मानव देवता स्वरूप प्रतीत होता है। ज्ञान के अहम्, संपदा व पद छूट जाने के व अन्य प्रकारों के भय से मुक्त होने पर हृदय प्रदेश में अनाहत चक्र झंकृत हो उठता है और मानव प्रेम व समर्पण वाली भक्ति से पूर्णतया ओतप्रोत हो संतों की श्रेणी में सुशोभित होता है। निर्मल प्रेम व नि:स्वार्थ मानव सेवा का संकल्प जागृत होने पर कंठ प्रदेश में विशुद्धि चक्र स्पन्दित हो उठता है और वाणी में ओज, वचनों में सत्यता का बल आ जाता है तब मानव अग्रगणी नेता, आचार्य, गुरु, स्वामी आदि की श्रेणी को प्राप्त करता है। अपनी विद्वता व श्रेष्ठता के भाव पर विजय पाकर ज्ञान संपन्न मानव जब अपनी अंतश्चेतना से तारतम्य स्थापित कर लेता है तो आज्ञा चक्र शिवजी के तीसरे नेत्र वाला स्थान स्पन्दित हो मानव को परमहंस व परम गुरु के पद पर पहुँचा देता है।

इससे ऊपर सहस्रार चक्र के सम्पूर्ण सृष्टि व ब्रह्माण्ड से जोड़ने वाले कपाट वही खोल पाता है जो सारे चक्रों को पूर्णता देकर पूर्ण संवेदनशील बनाता है व समय की मांग के अनुसार प्रत्येक चक्र की गुणवत्ता में जीने की भरपूर लीला कर पाता है। सहस्रार के सहस्र दल कमल के हजार गुणों का सत्व और सर्वात्कर्षण तत्व अपने में प्रस्फुटित कर मानव ही अवतार होता है। जो साधारण इंसान से लेकर देवता, संत, ज्ञानी, ध्यानी, परम गुरु आदि सभी पात्र चेष्टा रहित हो खेल पाता है क्योंकि वह प्रकृति द्वारा तैयार किया प्रकृति का चुनाव होता है। प्रकृति से जुड़ प्रकृति का ही मानस पुत्र या पुत्री होता है जो इस धरती पर अवतरित होकर अगले अवतार के लिए सूचनाएँ व निर्देश एकत्र करने का कर्म-धर्म ही निबाहता है।
पायो कृष्ण स्वरूप वरदान – तव अंकुरित भयो प्रणाम।
यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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