मैं युग चेतना हूँ गीता हूँ सुगीता हूँ
वेद हूँ विज्ञान हूँ विधि का विधान हूँ
जैसा प्रकृति ने चाहा वही इंसान हूंँ
मानसपुत्री प्रकृति की सर्वोत्तम कृति सृष्टिï की
वही तो हूँ कर्मयोगी, प्रेमयोगी, सत्ययोगी
यही है सत्य, यहीं धरा पर है सत्य
जब से सृष्टि बनी तभी से सत्य की स्थापना को ईश्वरीय सत्ता माध्यम ढूँढ़कर अपने प्राकृतिक नियमों के हिसाब से तैयार कर ही लेती है। जो भी साधना करते हैं या सत्य को जानने का पुरुषार्थ करते हैं उन सबको कृपालु परमेश्वर अवश्य ही शक्ति प्रदान करते हैं। पर उसका प्रयोग कौन कैसे करता है यहीं मानव की अहम् बुद्धि गच्चा खा जाती है। अपनी महत्ता बताने को तरह-तरह की युक्तियों की भूलभुलैया में मानव खो जाता है। बिना पूर्ण समर्पण के, बिना युग चेतना से जुड़े शक्ति का प्रवाह कर देता है।
एक ही धर्म मानवता का जो वेदों का सत्य है उसकी स्थापना का कर्म अहम रहित होकर करना ही सत्ययोग है। ओशो ने एक बार एक बात कही कि ‘शैतान सदा ही आराम से सोता रहता है, क्योंकि उसके अनगिनत सिपाही चारों ओर फैले हैं। यह देखने के लिए कि कहीं भी, किसी भी तरह सत्य न पनपने पाए। पर फिर भी उसकी विराट वाहिनी का एक सिपाही दौड़ा-दौड़ा, घबराया-सा उसके पास पहुँचा और बोला, ‘उठो गुरु, उठो। अब तो उठ ही जाओ। धरती पर एक और इंसान ने सत्य पा लिया है उसे तो तुम ही संभालो। तो ऊँघते-ऊँघते शैतान बोला, ‘अरे जाओ, तंग न करो। कुछ नहीं होगा। मैंने बहुत से बुद्धिजीवी छोड़ रखे हैं जो वाक्जाल में उसे उलझाकर, भ्रमित कर उसकी धज्जियाँ उड़ा देंगे ऐशोआराम में लगा देंगे।
पर अब यह नहीं होगा अब की बार सत्य निश्चिन्त है, क्योंकि झूठ ही झूठ को मारेगा। यह समय का निर्णय है। कलियुग की यही महिमा नारद ने गाई है कि राम-कृष्ण के नाम से ही और सत्य धारण करने वाले के आभामंडल से ही काम होगा। दूसरे की लाइन मिटाने की ज़रूरत नहीं। दृष्टा बनकर बस अपने सत्य के सुदर्शन कवच के साथ झूठ से झूठ की सिरफुटौव्वल निहारना है। पर हाँ निष्क्रिय होकर नहीं। अपने सत्य की लाइन बड़ी करते चलने का सतत् उद्यम करना ही होगा, सत्य-कर्म व प्रेम का प्रकाश चहुँओर फैलाना ही होगा। सत्य वाहिनी तैयार करनी ही होगी। बाकी काम समय करवा ही लेगा। उसे सतयुग लाना है तो योद्धा तो चाहिए ही। आओ सत्यमय कर्ममय होकर उस परम-प्रकाश के योद्धा बनें। झूठ जीकर, शैतान के अदना से सिपाही बनकर न रहें। अगर दल-बदलू बनना ही है तो ऊपर वाले की महफिल में बनें। झूठ से सत्य के ख़्ोमे में आ जाएँ।
कमी ही सही, सही बन्दों की
पर ये नस्ल खत्म होती नहीं
होता है एक-आध पौधा कभी-कभी
पूरी की पूरी फसल होती नहीं
इन्हीं के दम से है रोशन जहाँ
यही वजह है कि दुनिया फना होती नहीं।
प्रणाम इसी नस्ल की फसल बोने को कृतसंकल्प है। अभी तक पाँच हज़ार साल बाद भी लोग गीता को ही पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं। गीता स्पष्ट वाणी है, बिना लाग लपेट वेद शास्त्रों व पुराणों का दो टूक सत्य। मानव को महामानव-भगवान बनाने का महामंत्र है गीता। आज के अर्जुन को तो और भी पूर्ण समर्पण में दक्ष होना ही होगा। क्योंकि महाबाहो पार्थ ने भी कहाँ पूरा अंत तक कृष्ण का साथ दिया। श्रीकृष्ण का विराट रूप देख, सुन व जानकर, शक्ति पाकर, उनको सारथी रूप में पाकर युद्ध जीता और काम खत्म। गीता प्रसार कहाँ किया उसने। कहाँ किसने युद्ध के बाद गीता को गुना, माना या जाना। अगर जाना होता तो द्वारका का वह हाल न होता जो हुआ। यहाँ तक कि श्रीकृष्ण की अन्त्येष्टिï भी कहां कैसे हुई। शास्त्रानुसार हुई भी या नहीं, यह भी अभी तक शंका का विषय है। गीता पूरी समझने के लिए पहले श्रीकृष्ण को और उनकी आत्मा के दर्द को जानना ही होगा। कितने अकेले रहे, कैसे बनी वाणी गीता सुगीता। जीवन का निचोड़ निकालकर रख दिया दुनिया के सामने मगर कौन गीता जी रहा है। तभी तो झूठ का साम्राज्य फैलता जाता है। श्रीकृष्ण को सच्ची श्रद्धांजलि गीता जीकर ही दी जा सकेगी। गीता समझाने वाले ऐश्वर्य में लिप्त स्वर्ग के टिकट बेच रहे हैं।
श्रीकृष्ण की आत्मा तो सर्वत्र व्याप्त है अर्जुन ढूँढ़ रही है जिसे अबकी बार पूरा का पूरा कृष्ण बना दे ताकि कृष्ण-कृष्ण न रहे, अर्जुन अर्जुन न रहे सब सखामय प्रेम-भाव में आ ही जाएँ। सब श्रीकृष्णमय हो जाएँ, बिछोड़ा न रहे। अब तो श्रीकृष्ण का प्रश्न है क्या हर बार उन्हें ही विराट रूप दिखाकर सत्य बताना होगा? क्या कोई अर्जुन स्वयं पहचान नहीं पाएगा? अंत समय तो श्रीकृष्ण भी समझ गए कि आशीर्वाद के प्रताप की छाया में, भोग-विलास में, कर्महीन होकर रमना प्रजा का धर्म नहीं है तो अब अर्जुन भी समझे। राज भोगना भी ठीक था महाभारत के बाद मगर साथ-साथ गीता-ज्ञान का प्रसार करना भी कर्म ही था। अब युगचेतना का आह्वान इसी कर्म को पूर्णता देने का है।
- प्रणाम मीना ऊँ