हे मानव!
समझ सच्चे गुरुओं के मन की बात जो सदा कल्याणकारी मार्ग बताने को प्रयत्नशील रहते हैं मनु कहे वही कथा-
कंघे बेचूँ गंजों को, आईने बेचूं अंधों को
ज्ञान बेचूँ अक्ल मंदों को, प्यार बाँटू कृतघ्नों को
मान दूँ अहम् वालों को, कर्म पढ़ाऊँ कर्महीनों को
कभी-कभी सोचूँ वंदनीय गुरुओं की बाबत
क्या होती होगी उनके मन की हालत
आज शिष्य हो गया चतुर महान
जरा सा कर दिया गुरु जी का सम्मान
भोले गुरु बाँटें आशीर्वाद भर-भर झोली
बोलें भावभीनी मधुर-मधुर बोली
शिष्य हो धन्य पाते प्रसाद
आ जाएंगे फिर कभी जब होगा विषाद।
आशीर्वाद ले चंपत हो जाते
अपने दुनियावी खेलों में रम जाते
गुरु देवें दिव्य प्रवचन, शिष्य देवें ताली
जिसे न लुभाया वही घर जा देवें गाली
बाकी सब बहुत ही व्यस्त
गुरु जैसे सबसे खाली
सामने आकर खूब मान-सम्मान, गुणगान
ताकि गुरु जी प्रेम से करें उनका मनोरंजन
जैसे बेच रहे हों दंतमंजन
देख-देख दुनिया का रूप समझ आ गया खेल अनूप
गुरु तो अपना आपा भूल, दस काम छोड़ ज्ञान गंगा बहाता
उसके लिए जो सुनकर भी अपनी ही चाल चलता
कौन है ऐसा जो गुरु वचनों का मर्म जान
ध्यान अग्नि में करे भस्म
मन-मस्तिष्क के विकार, कुविचार
हो तत्पर करने को सत्य, प्रेम व प्रकाश प्रसार
मानव का प्रभु के प्रति प्रेम व आस्था हिल व डोल सकती है पर प्रभु का मानव के प्रति प्रेम व आस्था कभी भी न हिलती है न डोलती है तभी तो उत्थान होता है प्रगति होती है।
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ