हे मानव !
अवतार को तू पहचानेगा कैसे? क्योंकि अपने मानव होने का भान उसे एक क्षण को भी विस्मृत नहीं होता और प्रत्येक मानव से उसी के गुणानुसार उससे व्यवहार करने में भी अवतार को सदा पूर्णता के विधान का ही ध्यान रहता है। सभी ज्ञानी जनों, गुरुओं के प्रति आदर, बड़ों के प्रति सेवाभाव व अन्य सबके प्रति सौहार्द व निश्छल प्रेम उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति व प्रकृति होती है। सारे सांसारिक व्यवहारों को सौंदर्यपूर्ण ढंग से निभाना, विनम्रता की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
यहाँ तक कि महाभारत युद्ध में रात को युद्ध विश्राम के समय भी श्रीकृष्ण स्वाभाविक रूप से सबके खेमों में जाकर जगत व्यवहार निभा आते थे। सारे गुरु ज्ञानी जन जानते थे कि वे कृष्णावतार हैं फिर भी किसने उनकी सुनी न संधि की बात, न गीता का ज्ञान। सभी अपने-अपने कर्मों का औचित्य, अपने ही ज्ञान के अहंकार के अनुसार बखानने में लगे रहे।
सत्य तो यह है कि अवतार चूंकि साधारण मानव की तरह सबके बीच पूर्ण नम्रता से रहता है। सबका मन मोहता हुआ सबको प्रसन्नता देकर विषाद और ऊब से बचाने की सेवा ही करता रहता है तो सब उसी से अपेक्षाएं रखते हैं। पर उसके व्यक्तित्व को उदाहरण जानकर, उसकी सत्यमयी बातों को मानकर, आचरण करने वाले नहीं के बराबर होते हैं। उसके चारों ओर घिरे लोग उसका दर्द देख ही नहीं पाते। अवतार के आनन्दमय आभामंडल का रसास्वादन तो सब करते हैं और उसके आभामंडल के रस भीने वातावरण की अनुभूति को अपना अधिकार ही मान लेते हैं (टेकन फॉर ग्राण्टेड) तभी श्रीकृष्ण ने कहा लोग मुझे अपने बीच विचरने वाला साधारण मानव मात्र समझते हैं। इसी कारण श्रीकृष्ण का विराट रूप देखकर अर्जुन भयभीत हुआ और उनसे वापिस सखा रूप में आ जाने को कहा।
अवतार कहाँ ठहरता है? बिना बताए लोगों के कर्म धुलवाता समूह बदलता रहता है। प्रेममय होने के कारण सब बिछुड़ों का दर्द मन में समेटे बिना व्यथित हुए वैराग्य और कर्म का मूर्तरूप बने हुए। कभी अपने को पुजवाने का नहीं सोचा। जो भोगा, सीखा, जीया, चिंतन-मनन से जाना वही बोला जो गीता हुआ। कभी प्रवचन नहीं दिए पर सदा कर्त्तव्य को तत्पर।
जीते जी कौन बनता है सत्यावतार के मार्ग को अपनाने वाला। पर अवतार के जाने के बाद उसके प्रत्येक व्यवहार व बातों को समझने की चेष्टा करते रहते हैं। अपने ही हिसाब से व्याख्या कर लेते हैं जिसमें पूर्ण सत्य कहीं खो जाता है। उस सत्य की समझ जब तक आए युग बदल जाता है। उस सत्य में उस युग के हिसाब से कुछ नया जुड़ने का समय आ जाता है और वह नया जोड़ने वाला फिर पहचान में नहीं आता क्योंकि पिछले युग के अवतार की छवि की ही खोज चलती रहती है।
तो हे मानव! कथाएँ सुन-सुन कर कुछ भी वैसा नहीं हो सकता जैसा अवतारों ने चाहा और उदाहरण बनकर दिखाया। अब हमें अपने आप को जानने की बारी है और जानकर पूर्ण नम्रता से अवतार श्रीकृष्ण वाले सत्य, निश्छल प्रेम व ज्ञान के प्रकाश को फैलाने के लिए कर्म करने को तत्पर होना ही है। तभी तो होगा संभवामि युगे-युगे।
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ