वेद मानव का सत्य

वेद मानव का सत्य

हे मानव!
यह सत्य जान वेद मानव सम्पूर्ण सृष्टि से ऐसे संवाद स्थापित करता था जैसे मानव मानव के सम्मुख होकर करता है। उसकी पूर्ण आस्था थी कि उसका संदेश ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ व शक्तियाँ अवश्य ही सुनती हैं और उसी के अनुरूप सभी क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाएँ होती हैं। समस्त ब्रह्माण्ड से वह एकत्व अनुभव करता था क्योंकि इस एकात्म के सत्य का उसे पूर्ण आभास था। सभी दृश्य व अदृश्य ऊर्जाओं और शक्तियों को वह देवता नाम रूपों से संबोधित कर उनका आह्वान कर अपनी उत्थान प्रक्रिया प्रशस्त करने के साधन जुटाने के लिए ऐसे करता था जैसे कि वे सब उसकी बातें समझते-बूझते हैं। वेद युग में यही उसका ध्यान था और ज्ञान व संदेश पाने का स्रोत था।

‘गतिशील सूर्य हमें प्रसन्न करें, जल बरसाने वाला वायु हमें प्रमुदित करे, इंद्र व मेघ हमारी वृद्धि करें’ इसी प्रकार ‘विश्वेदेवा हमें पर्याप्त अन्न प्रदान करें जिससे कल्याण हो’ इत्यादि। यहाँ तक कि हवन यज्ञ में आहुतियों व स्तुतियों द्वारा ‘आओ, हमारे द्वारा तैयार किया ताजा सोमरस ग्रहण करो’ इस प्रकार से अतिथि सत्कार की भावाभिव्यक्ति की जाती थी। मानव के भाव साम्राज्य का विस्तार सृष्टि की अनंतता तक था। वह भाव जिसका महत्व व ज्ञान गीता में भी कहा गया है कि भाव से ही समस्त सृष्टि संचालित है। सत्य भाव ध्यान से समस्त ऊर्जाएं तथा ज्ञान मानव को स्वत: ही प्राप्त होते जाते हैं।

ज्ञान तीर की तरह सीधे प्रकाश की किरणों पर सवार होकर आता है और प्राकृतिक शक्तियाँ चक्राकार-स्पाइरल आकार में। श्रीकृष्ण को यह ज्ञान सीधा सूर्य से ध्यान-योग से प्राप्त हुआ और चक्रावत शक्ति सुदर्शन चक्र के रूप में प्राप्त हुई। जो अज्ञान का अंधकार मिटाने तथा अधर्म के संहार के लिए प्रयुक्त हुई।

वेद युग में मानव ग्रहों, नक्षत्रों व ऊर्जा पुंजों के प्रभावों को अनुभव कर प्रेरणा लेकर दैनिक क्रियाकलापों में संलग्न होते थे। उनकी संवेदनशीलता प्रकृति से पूर्णतया जुड़ी थी। कलियुग तक आते आते यह संवेदनशीलता तेरे-मेरे, अपने पराए और सांसारिक बुद्धि प्रदत्त व्यापारिकता में बंध गई। भावों को सीमित कर उसे कुएं का मेंढक बना गई। कलियुग में आह्वान तो होता है सोमरस को भी परोसा जाता है परंतु केवल अहम् युक्त स्वार्थी भोग लिप्सायुक्त लक्ष्यों के लिए।

आज मानव का प्रकृति से तारतम्य टूट गया है वह एक ऐसा व्यक्तित्ववादी व्यक्ति बन गया है जो अहंकार में लिप्त अपनी इमेज (छवि) की अभिव्यक्ति को ही सत्य मान बैठा है। आज मानव का मानव से कैसा व्यवहार हो यही भूल गया है। सारी आचार संहिता व्यक्ति के विशेषणों पर आधारित हो इतनी विकृत और विद्रूप हो गई है कि चारों ओर रुग्णताएँ और व्याधियाँ व्याप्त हो गई हैं। रोज नई समस्या, नया निदान, नया रोग, नया इलाज। हीलिंग पद्धतियों तथा रुग्णताओं में होड़ सी लगी है।

वेद तो पूर्ण विज्ञानमय है। वह विज्ञान जो स्वत: ही स्वास्थ्य, समृद्धि व ऐश्वर्य की ओर ले जाता है। सूफ़ी-सी मस्ती, ज्ञानी ध्यानी- सा धैर्य, योगी-सी निर्लिप्तता, आविष्कारक की खोज-सा आनन्द, प्रकृति का नित-नवीन लगने का चमत्कार, अद्भुत रोमावली पुलकित करने वाला स्पंदन सभी कुछ तो है वेद जीने में। वेद जीकर वेद हो जाने पर मानव प्रकृति का प्रवक्ता होता है क्योंकि उसका प्रकृति और पुरुष-ब्रह्माण्डीय परमबोधि से योग हो जाता है तथा उसके लिए पूरी सृष्टि हथेली पर रखे पारदर्शी कांच के अंडे के समान सब कुछ एकदम स्पष्ट देखने-दिखाने वाली हो जाती है। प्रत्येक प्रश्न और दुविधा का उत्तर अपने अंदर ही मिल जाता है। सब रहस्यों की परतें खुलती जाती हैं और मानव अपने अंतर की दिव्यता से जुड़ जाता है-
मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
यही सत्य
है!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे