हे मानव ! सुन और ध्यान लगाकर समझ ले यह सच्चाई कि विषाद (डिप्रेशन) कोई बीमारी या व्याधि नहीं है। वैराग्य का सही अर्थ व महत्व जानने के लिए प्रकृति के दिए हुए पठार हैं। मानव के पूरे जीवन में सात से लेकर दस बार तक यह पठार की शिविर की स्थिति अवश्य आती है। इसका अंतराल आठ से बारह साल तक का हो सकता है। वैदिक संस्कृति के आश्रम विभाजन इसी वास्तविकता और मानसिकता पर आधारित हैं।
यह प्रकृति का एक बहुत अनोखा व चमत्कारिक नियम है इस अवधि में मानव मन संसार से भ्रमित व चकित होकर विरक्ति अनुभव कर अपनी ही दुनिया में खो जाता है। व्यथित होकर आत्म-प्रताड़ना से लेकर जीवन समाप्ति-आत्म हनन तक की सोच लेता है। या फिर आत्ममंथन कर अपने को समेट कर दृढ़ निश्चय करके नए उत्साह के साथ अपने आपको एक सत्यमयी दिशा देकर जागृति पूर्ण जीवन की ओर उन्मुख होता है या सही गुरुओं की खोज में भटकता रहता है। दुनिया से कटकर निष्क्रिय होकर अकेलेपन के अँधेरे में ही बैठे रहने की इस मन:स्थिति को पाश्चात्य मनोचिकित्सा विज्ञान ने डिप्रेशन की बीमारी का नाम दिया है। ये शब्द अब कम आयु वालों में भी दैनिक दिनचर्या में धड़ल्ले से प्रयोग होते हैं। टेंशन-डिप्रेशन और बोरियत की भूलभुलैया में ही भटकते-अटकते रहकर प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं।
विषाद बीमारी नहीं। मानसिक रूप से उन्नत मानव को जब संसार असार लगता है या यूँ कहें कि भावुक व संवेदनशील व्यक्ति के सामने जब संसार का असली चेहरा दिखाई देने लगता है तब यह पठार या शिविर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मानसिक आघात ही इसका एकमात्र कारण नहीं है। मानसिक, आत्मिक व आर्थिक उत्थान में गतिरोध होने से भी यही स्थिति होती है। इस पठार या शिविर से जो मानव आत्म-विश्लेषण, चिंतन व मनन कर अपनी ही आत्मशक्ति (विलपावर) से उबर पाता है वह पुन: नवजीवन, नव ऊर्जा पाकर आगे बढ़ता है और जो इसमें लिप्त रह गया वह मानसिक विक्षिप्तता को प्राप्त हो आत्महनन भी कर सकता है। यही पाप है, मानव की आंतरिक शक्तियों का अपमान है। शिविर या पठार का आगमन कब दबे पांव हो जाता है जानना कठिन है क्योंकि इसका आरम्भ बार-बार की विरक्ति या ऊब से ही होता है इस स्थिति का अंतराल कम होता जाए और औषधियों पर निर्भरता बढ़ती जाए तो समझो समस्या का दमन हुआ है, शमन नहीं। ज्ञानी वही है जो इन लक्षणों को पहचान आत्म-विवेचन कर अपनी दैनिक क्रियाओं में सुरुचिपूर्ण परिवर्तन कर नियमितता बरते। अपना सत्य जानकर प्रकृति के नियमों के अनुसार अपने उत्थान को कभी भी न रोकने का दृढ़निश्चय ही पुरुषार्थ है जीवन इसी पुरुषार्थ की साधना है।
जो मानव इन पठारों व शिविरों को झेल कर बेहतर इंसान बनकर उभरता है वही मानवता के लिए उपयोगी होता है व आने वाले पठारों को झेलने में सक्षम होता है। पठार पड़ाव हैं शिविर हैं उत्तरोत्तर शिखर तक पहुँचने की सीढ़ी हैं। कैसे पहुँचोगे एक सांस में चोटी तक रास्ते में ही टूट बिखर जाओगे। इन शिविरों पर पूर्ण विश्राम व तैयारी के बाद पूरे उत्साह से आगे ही आगे बढ़ना सीख ओ मानव !!
- प्रणाम मीना ऊँ