ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति ब्रह्माण्डीय कालचक्र के कृतित्व, उसकी पूर्णता और संहार का सार तत्व है। मानव शरीर यंत्र का ज्ञान, मंत्र की ऊर्जाओं का भान और शरीर के अंदर फैली नाड़ियों के जाल का उनके उद्गम संगम और विलय के तंत्र का ज्ञान, सब कुछ ध्यान-योग की अद्ïभुत क्षमता से जानकर विश्व को देना ही श्री शिव की महानतम देन है। उनका सर्वस्व स्वरूप यही स्थापित करता है कि मानव शरीर ब्रह्माण्ड की संरचना प्रक्रिया का ही प्रतिरूप है।
प्रकृति से योग के कारण वह प्रकृति के प्रत्येक उद्वेग को आत्मसात् कर लेते हैं। जब शिव तांडव करते हैं तो सृष्टि का संहार होता है पुनर्निमाण के लिए। जब अपूर्णता प्रकृति के नियमों को नकारकर चरम सीमा पर पहुँच जाती है, तो प्रकृति ऊर्जाओं को पुनर्व्यवस्थित करने लगती है, इस उथल-पुथल से प्रकृति की ऊर्जा से सदा ही संचालित शिव का शरीर स्वत: ही तांडव की प्रक्रिया में आकर दुनिया को संहार का संदेश देता है। तांडव की मुद्राओं में ब्रह्माण्डीय शक्तियों का संचालन मूर्तरूप में परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं है कि शिव तांडव करते हैं तब संहार होता है बल्कि उनका योगी शरीर माध्यम बनता है प्रकृति का रौद्र रूप प्रदर्शित करने को यह बताने को कि अब संहार सुनिश्चित है और प्रकृति के संहार में भी सुंदर लयात्मकता है।
इससे यही सत्य स्थापित होता है कि प्रकृति से संयुक्त मानव जो सोचेगा, बोलेगा, करेगा उसमें प्रकृति का ही संदेश होता है। जटाओं से गंगा निकालना अथक भागीरथ प्रयत्न का प्रतीक है। कैसे घने घुमावदार जंगलों से जलधारा निकालनी है। सिर को क्रोध के समय भी ठंडा रखना आचमन द्वारा जैसा कि प्रत्येक पूजा के बाद पवित्र जल छिड़का जाता है। शिवजी की आँखें ध्यान में भी अधखुली हैं जो बताती हैं कि बाहर की भी चेतना रखनी है, क्योंकि समाधि से बाहर आकर, संसारी भी पूर्णरूप से होना है पार्वती माँ को पूर्ण सहयोग व सम्मान देकर। तीसरा नेत्र खोलकर संसार की अपूर्णता भी तो भस्म करनी है।
यदि शिव का त्रिशूल- वात, पित्त, कफ तीन शूलों के नाश का प्रतीक है तो डमरू, लय, ताल संतुलन का पाठ पढ़ाने वाला सबसे पहला वाद्ययंत्र है। रुद्राक्ष धारण करना स्वास्थ्य के लिए प्रकृति की शरण लेने का द्योतक है। व्याघ्र-चर्म पर बैठने से मूलाधार की और रीढ़ की हड्डी की बीमारियाँ और व्याधियाँ नहीं सतातीं क्योंकि योगध्यान की अवस्था में कई-कई दिनों तक बिना खाए पिए व शरीर हिलाए रहना होता है। सांप भभूति रुंड-मुंड भस्म इत्यादि धारण करना संकेत है कि नकारात्मकता या अशुभ चिह्नों को भी प्रकृति का हिस्सा स्वीकारो उससे व्यथित व कुंठित मत होओ यह भी योग है।
वास्तव में प्रत्येक प्रतिमा प्रतीक और पूजा की विधि अपने आपमें ज्ञान पुंज है पर हम सिर्फ पूजा की रीति में ही अटक जाते हैं। शिव-शक्ति का संयोजन ही सृष्टि में संतुलन पैदा करता है और उनका समागम सृष्टि की उत्पत्ति करता है। इसलिए योनी सहित शिवलिंग को सदा जल से सिंचन करते रहना, दूध, घी, शहद से अभिषेक करना, भभूत मलना, बेलपत्र चढ़ाना बहुत महत्वपूर्ण सांसारिक व सामाजिक संदेश है, यदि मानव सृष्टि उत्पत्ति के कारण इन अंगों पर इन्हीं वस्तुओं का सही प्रयोग करे तो इन अंगों से संबंधित बीमारियों व समस्याओं का निदान होगा। विशेषकर सोमवार व शनिवार दोनों ही शिव दिन माने गए हैं।
सोमवार को, रविवार सूर्य ऊर्जा के दिन के बाद हमारे सब उद्वेग तीव्र रहते हैं। शनिवार सप्ताहांत में सभी ग्रहों की ऊर्जा लेने का और थकान मिटाने का उपाय शिव पूजा बताई है। हाँ, एक विशेष बात श्री शिव का मंत्र ऊँ नम: शिवाय जो कि अत्यन्त शक्तिदायक है जब किसी कार्य विशेष या अभियान को सिद्धता देनी हो तभी जपें। अन्य समय ऊँ नम: शिवाय जपना उचित है जिससे शिव के शंकर रूपी गुण सत्यम् शिवम् सुंदरम् स्वत: ही प्राप्त होंगे।
यूँ तो सभी ब्रह्मस्वरूप देवतागण जीवन मृत्यु के प्रभाव से परे हैं पर मृत्युञ्जय की संज्ञा केवल भगवान शिव को ही मिली। संसार को हलाहल विष से बचाने को ज़रा भी नहीं हिचके और पीकर नीलकंठ कहलाये। सिर पर अर्धचंद्र सभी कलाओं को पागलपन की हद तक जाकर विकसित करने का प्रतीक है। शिवजी का महामृत्युञ्जय जाप है-
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृर्त्योमुक्षीय मामृतात् ॥
हमारी वेदमयी, सत्यमयी, सौंदर्यमयी संस्कृति की अनमोल धरोहर को बस प्रणाम ही प्रणाम।
- प्रणाम मीना ऊँ