”अब समाप्त होना है विद्रूपता व कुरूपता का वीभत्स खेल”
हे मानव ! तू तो अब इंसान भी नहीं रहा। अब वो समय आ पहुँचा है जब यह ध्यान करना ही होगा कि इंसान अब इंसान क्यों नहीं रहा। इंसान केवल ”मैं” होकर रह गया है। कोई स्वार्थहीन प्रेममय सच्चे बोल या अच्छे हाव-भाव शोभापूर्ण भाव-भंगिमाएँ दिखाई ही नहीं देतीं। हर तरफ यही सोच है- मुझे क्या नहीं मिला मुझे पूछा नहीं मैं बोर हुआ मैं तनाव या विषाद में हूँ, मुझे अच्छा या ठीक नहीं लगा, मुझे क्या मिलेगा मेरा क्या होगा, मुझे क्या पड़ी है, दुनिया जाए भाड़ में आदि-आदि।
जो सही इंसान नहीं रहे उनके लिए समय के संकेत बहुत स्पष्ट हैं। जो अपने ऊपर काम करने के हेतु आन्तरिक यात्रा प्रारम्भ कर देंगे उनकी सहायता प्रकृति अवश्य ही करेगी। अन्यथा पाँचों तत्वों का विनाशकारी तांडव अपूर्णता को जड़-मूल से नष्ट कर ही देगा। अग्नि-आग,पृथ्वी-भूचाल,वायु-आँधी बवंडर, आकाश-उल्कापात हवाई दुर्घटनाएँ आदि।
अब युग चेतना का नव प्रवाह होना अवश्यम्भावी है। प्रकृति भी यही दर्शा रही है। खूब वर्षा खूब प्रवाह जल ही जल सभी स्थलों व नदियों से पुरानी जमी हुई गंदगी बहाता हुआ। जल का वेग प्रकृति का बहाव, मानव की कृत्रिम गति को तुच्छ दिखाकर, अंधाधुंध भागदौड़ की निरर्थकता बताकर मानव को सही दिशा में गतिमान करने को बाध्य करता हुआ। यही है संकेत और संदेश परम बोधि की सटीक कार्यप्रणाली व सत्य न्याय व्यवस्था का। सदियों से जमा आन्तरिक मल ऐसी व्याधियों को पनपा देगा जो किसी भी विज्ञान की पकड़ से बाहर होंगी।
ओ मानव ! अपने अवचेतन मन और स्वार्थी बुद्धि में अवगुंठित व एकत्रित दुनियाभर के अनर्गल अनर्थक व निरर्थक स्मृति चिह्नों शब्दों और रूढ़िवादी सड़ी-गली मान्यताओं को समय की मांग के बहाव में बहा दे। सागर के विशाल गर्भ में पहुँचा दे ताकि वो उन्हें नवीन नए नूतन रत्नों में परिवर्तित कर सके और सच्चे ध्यान योगी व सतत् पुरुषार्थी उन्हें पुन: प्राप्त कर मानवता के कल्याण हेतु प्रस्तुत कर सकें। यही तो है ”पुनराकृति” प्रकृति का शाश्वत नियम! इसमें भागीदार बनना ही मानव का सर्वोत्तम कर्म है धर्म है। छोड़ो, बहा दो पुरानी निष्क्रिय निश्चेष्ट असत्य व पाखंड से परिपूर्ण पद्धतियों को जो मानव उत्थान में, सत्य मानव बनने में, दिव्यता जगाने में तथा एकत्व से भरपूर प्रेममय व आनन्दपूर्ण विश्व रचना में गतिरोधक हैं।
सुनो प्रकृति की पुकार – यही तो है प्रणाम का आधार
”प्रत्येक मानव को कालचक्र की दी हुई परीक्षाओं की चक्की में पिसना ही पड़ता है जो कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्था व प्रकृति के नियमानुसार सत्य व प्रकाश का पाठ पढ़ाने के लिए, सीखने के लिए ही हैं।”
यही सत्य है
यहीं सत्य हैै
- प्रणाम मीना ऊँ