मन तू है कहाँ

मन खोया-खोया सा है न यहाँ है न वहाँ है
सब कुछ सोया-सोया सा है
बहुत देर हुई अपने आपसे मिले
मन की कली खिले
सब लगे अपने ही मेलों में झमेलों में
जि़न्दगी से जूझते से अपने को बूझते से
वहीं वहीं घूम रहे
अपने ही बनाए घेरों में
कर्मों के फेरों में
अपने ही बनाए मापदण्डों पर
कभी खुश कभी रोए से
पर कभी न माने न जाने
कि वो तो है सचमुच खोए से
यहाँ तो बस है अहसास
हर समय है कोई आसपास
अन्दर बैठा कोई ही उस कोई को देखता
अपनी ही छवि का प्रतिबिम्ब प्रतिरूप प्रतिछाया
जब मन करे विश्राम उदास-सी रात में
तो छाया कहाँ होती है आसपास में
उस विश्राम में भी रहता भान है
कि छाया अब नहीं विद्यमान है
दीखता नहीं उसका रूप
तो क्या है नहीं उसका स्वरूप
मन न तू उदास हो
न सोया न खोया
कब हुई शरीर से अलग छाया
जब ना दिखे तो अन्दर ही छाई वो छाया
जो बन गई आत्मा का साया
आत्मा का ही साया
यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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