समय की युगचेतना कलमबद्ध करवा रही है, फिर भी लोग क्यों नहीं समझ पा रहे या समझना ही नहीं चाहते या समझ कर भी अनजान बनते हैं। एक ही उत्तर है- अकेली ही तो है युगचेतना भी अकेला ही तो लगा रहा भागीरथ। प्रत्येक मानव जो क्षण की युगचेतना से संयुक्त, योग स्थित हो जाता है वह तो अकेला ही चल पड़ता है। युगचेतना जानती है कब उसका संदेश रंग लाएगा।
इस कारण उन्नत मानवों की कड़ी, Chain, सी बनती जाती है। जो अपनी पारी खेल चुके उन्हें अगली कड़ी से जुड़कर पूर्ण सहयोग करना ही होगा अपनी छवि को बचाने का उद्यम छोड़कर।
यही है प्रणाम का सुपात्र को सहयोग। सुपात्र को सहयोग सबसे बड़ा योग, सुपात्र को जानना ही सच्चा विवेक है। सच्चे विवेक वाले मानव को युगचेतना सदा ही रूपांतरित कर अग्रसर करती चलती है वो किसी एक छवि में बंधता नहीं, किसी एक भाव भंगिमा, Style, में रमता नहीं, किसी एक विधा पर रुकता नहीं, किसी एक तकनीक, विधि, में कोल्हू के बैल की भाँति घूमता नहीं रहता वो तो युगचेतना का ही मूर्तरूप बन जाता है।
नितनूतनाम्बुदमय: रोज नया होकर खिलता और खुलता है यही है सत्य प्रणाम का नित नया रूप जब तक एक आयाम को कुछ-कुछ समझ पाएं दूसरा आयाम प्रारम्भ हो जाता है।
तो कब तक पकड़े रहोगे
पारे को चुटकी में
हवा को मुट्ठी में
खुशबू को नासिका में
प्रकाश को शरीर में
वो तो फैलेगा बहेगा विस्तारित होगा ही
जब तक है वो है नहीं तो ये जा वो जा
जब तक है भरपूर अनुभूति कर लो
तब आगे बढ़ो… रुकना कब जाने मीना
यही सत्य है
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ