हे मानव !
सृष्टि में कुछ भी खाली नहीं होता। खालीपन जैसी कोई वस्तु- स्थिति है ही नहीं। मानव शरीर कहीं से भी खाली नहीं है। नमी, वाष्प, वायु आदि तत्वों से भरा है जो सृष्टि के ही अंश हैं।
जैसे एक घड़े में जब कुछ, आंखों से भरा हुआ दिखता है तो हम कहते हैं कि घड़ा भरा है। जब कुछ दिखाई नहीं देता तो हम उसे खाली कह देते हैं। स्थूल व दृष्टव्य को ही सत्य मानने वाली हमारी संसारी बुद्धि को यह प्रतीत होता ही नहीं कि उस समय वह उसी सर्वव्यापी अदृश्य तत्व से भरा होता है जो उसके चारों ओर व्याप्त है। सच तो यह है कि उसी तत्व से भरा है जिससे उसका अस्तित्व दिख रहा है।
ऐसे ही हे मानव ! जिस कारण से तू है उसी से तो तेरा अस्तित्व भरा है। यही सत्य है मगर जब तू अपने बाह्य आकार अंदर भरे अंगों व अपने होने के अहम् को ही अपनी सच्चाई समझ लेता है तो तू उस पूर्ण तत्व की सत्ता से अपने को अलग कर लेता है जिसके कारण तू भरा दिखता है धरती पर टिका है। जब तू इस दिखाई देने वाले भरेपन के भाव से हटकर न दिखने वाले भरेपन के भाव को ही सत्य मानेगा तभी तू अंदर-बाहर एक ही तत्व की सत्ता व महत्ता की अनुभूति कर पूर्णता के भाव को समझ पाएगा। अंदर-बाहर एक ही ऊँ ऊँ ऊँ नाद ब्रह्म् का गुंजन व पूर्णता का सतत् बोध ही तो है पूर्णता से एकात्म का अहसास-
पूर्णमद: पूर्णमिदम् पूर्णात पूर्णमुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते।
क्या कम हो जाता है उस पूर्णता का। सारी दुनिया कितनी भी ज़ोर ज़ोर से सांसें ले ले क्या प्राणवायु कम हो सकती है? नहीं, लेकिन सांसों पर सवार जिन भावों को प्रसारित किया जाता है वे अपने-अपने निर्दिष्ट व अभीष्ट दिशा स्तरों में ही समा जाते हैं और कर्म चक्रों का कारण बनते हैं। नकारात्मक व सकारात्मक भाव दोनों ही ब्रह्माण्ड में हैं और अपने पूर्णरूप में दोनों ही सृष्टि का अभिन्न अंग हैं। कर्मानुसार कालचक्र घुमाने के लिए व सृष्टि की रचना की निरंतरता के लिए।
सत्यं शिवम् सुंदरम् रचना वाला, सकारात्मक भाव ही है। जो सगुणों वाले जीव व मनभावन रंगों-सुगंधों व औषध गुण वाले पदार्थों का कारण है और नकारात्मक भाव दुर्गुणों वाले जीव व कंटीले जहरीले दुर्गंधों वाले पदार्थों का कारण होते हैं। पर दोनों ही प्रकृति की उत्थान-प्रक्रिया के कर्ता कारण हैं। तुम्हें क्या होना है इसकी तुम्हें पूरी आज़ादी है। जो भाव की शक्ति व नियति समझ जाएगा वही सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था की गति को भी जान लेगा। प्रकृति ने हमें जो भी, जैसा भी दिया गुण या दुर्गुण उसको ध्यान-योग द्वारा जानकर उससे अपने को पूर्णरूप से निर्लिप्त व निवृत्त कर लेने पर ही मानव उस परम प्रकाश से भर जाता है जो पूर्ण प्रेममय सत्यमय व कर्ममय होने का स्रोत है। भाव से ही सब भाव हैं।
यही है सत्य
- प्रणाम मीना ऊँ