सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है।
जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टि के लिए ऊँचा दिखने की होड़ लगी है। कोई क्या कहेगा? बस किसी के कहने की सोच कर ही डर गए अहम् के कागज़ी पहलवान। कोई न कोई बहाना बनाकर हम कुरीतियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, लाचार से मानसिक बीमार से बने हुए।
यह कौन है। जो बाहर कहीं बैठा है और नाराज़ हो जाएगा। यहाँ सत्य का भगवान जो अंदर बैठा है वह नाराज़ होता है तो हो जाए, क्या फर्क पड़ता है, बाहर वाला नाराज़ न हो। यह नहीं जानते कि अंदर की सत्य-आत्मा जो भाग्यविधाता है, कभी भी असत्य को नहीं स्वीकारती और वही असंतुष्टि, कुंठाओं व बीमारियों का मूल कारण है। सच्ची संतुष्टिï सत्य के लिए पूर्ण मनोयोग से कर्म करने में ही है।
अपने अंतर के सत-चित-आनन्दस्वरूप प्रभु से साक्षात्कार ही अपने आप में दर्शन पा लेना है। जो आराध्य मन को भाता है वह हमारा ही प्रतिबिम्ब होता है। सच्ची आराधना वही है जिसमें हम अपने आराध्य के गुणों को अपने में जगा लें और उस शक्ति का प्रयोग जैसे आराध्य ने अपूर्णता को मिटाकर सत्यकर्म किया वैसा ही अनुसरण करें। न कि उनसे अपने स्वार्थपरक ध्येयों के लिए आशीर्वाद मांगें या अपने लिए शान्ति मांगकर, निस्पृह और निष्क्रिय होकर बैठ जाएं। हमारे आराध्य कहाँ निष्क्रिय हुए योग ध्यान कर शक्ति लेकर, कुव्यवस्था के विनाश का कर्म करते रहे। आराध्य को यदि आत्मसात् न किया तो दूरी का विरह सतायेगा ही, भटकाएगा भी। यही द्वैतवाद व अज्ञान है।
सब जानते हैं। रट-रटकर पागल हो रहे हैं कि आत्मा तो सबकी एक ही है पर इसको पूरे मन से मानकर व्यावहारिक रूप में अनुभव कर कितने लोग इस मूलभूत बिंदु का अमृतपान करते हैं। हर समय मेरा-तेरा, अपना-पराया, अपना सुख-चैन बस यही गोरखधंधा चलता रहता है। अरे भई औरों को सुख-चैन दिया वह भी तो हमारा अपना ही सुख चैन है। आत्मा का एकत्व अस्वीकारना ही अज्ञान है। बुद्धि को दुनियावी ज्ञान, जो पूर्णतया बुद्धि ने ही पैदा किया और अपने स्वार्थों के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा, वही ढकता है। और शरीर को तो आप जितना स्वादों में, आलस्य में कर्महीनता में व राग-रंग में लगा दो, लिप्त होता ही जाएगा।
जो लोग सोचते हैं कि पूरी शारीरिक व मानसिक शक्ति लगाकर कर्म करने में थकान होती है। वे शरीर व मन की क्षमताओं को नहीं समझते। हमारे कर्म का फल हमारी इच्छानुसार ही हो यह भाव रहना ही थकाता है। श्रीकृष्ण ने कहा है-कर्म नहीं, कर्म-फल चिपक जाता है और यहाँ यह हाल हो गया है हर कर्म करने से पहले पूछा जाता है सोचा जाता है कि ऐसा करेंगे तो क्या यही होगा। उनका वश चले तो रसीदी कागज़ पर लिखवा लें कि यही तय है कि ऐसा करोगे तो ये फल मिलेगा। इन दो शब्दों में कर्म और काम में बहुत सूक्ष्म सा मगर बहुत बड़ा अंतर है। कर्म अपने आप में विशेष है। सच्चा व्यक्ति जो भी कर्म जीवन में आए शान्त रहकर संतुष्टिï से करता ही रहता है। और काम कभी किया, कभी नहीं किया कभी मन हुआ तो अच्छी तरह किया, कभी बेमन से किया इस काम का, कर्म की तरह सतत् प्रवाह नहीं होता और जिसका प्रवाह सतत नहीं होता वह तो सड़ेगा ही।
कभी यह भी सोचा जो कर्म सामने आता है उसमें कालचक्र की इच्छा निहित है। श्रीकृष्ण ने कहा-सच्चे क्षत्रिय का कर्म है अन्याय से युद्ध और समय ने अपने आपसे तुझे यह युद्ध दिया है, इसे समय की मांग जानकर अवश्य लड़ अर्जुन। यही बात अब भी हो गई है समय पुकार रहा है चीख रहा है, कराह रहा है, पर सब सब्र का झूठा पाठ पढ़े हुए, नजरें चुराए बैठे हैं। क्यों नहीं ख़्ाून उबलता? वैसे तो बड़ा छाती ठोक-ठोककर कहते हैं कि क्षत्रिय हैं, ब्राह्मïण हैं, ठाकुर हैं, नामों के आगे-पीछे भी खूब भगवानों के नाम, तरह-तरह की उपाधियाँ जोड़ रखी हैं पर सत्य के लिए, मानवता के लिए, देश के लिए नि:स्वार्थ कर्म नदारद है। प्रभु हमसे वही करवाते हैं जिसके हम योग्य, प्रकृति की निगाह में होते हैं। समय जान रहा है कि सब सक्षम हैं झूठ बनावट से लड़ने के लिए। आध्यात्मिक तैयारी भी काफी हो गई है। अनगिनत गुरुओं, स्वामियों को धन्यवाद। बस, बात है तो जगने और जगाने की-
तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग ज़रा।
एक सबसे बड़ा अज्ञान व बाधा है यह विचार कि संसार धर्म छोड़कर ही कुछ हो सकता है। संसार में जो अपूर्णता आई है उसे तो संसार में रहकर ही नकारना है और हटाना है ताकि वसुधैव कुटुम्बकम् और सत्यम् शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो। श्रीराम व श्रीकृष्ण ने कहाँ संसार छोड़ा। इतना ज्ञान का अथाह भंडार है हमारी संस्कृति में अब उस ज्ञान से ही अंधकार को काट फेंककर कर्म करना ही सत्य का प्रकाश फैलाना है। क्योंकि कलियुग में ज्ञान का विज्ञान ही अज्ञान को काट सकता है।
सारा खेल सत्य कर्म प्रेम व प्रकाश को, सत्यरूप से जानने का ही है। प्रणाम इसी भूले हुए ज्ञान को पुन: जागृत कर रहा है। सब सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक समस्याओं और विकृतियों का हल जागृति ही है। प्रत्येक मानव के अंदर की दुर्गा सोई हुई है, उसे विवेक से जगाना है। इतनी समस्याएँ जो प्रभु हमें दे रहे हैं वह हमें थप्पड़ मार-मारकर जगाने के लिए ही तो हैं। समय हमें कर्म का आह्वान दे रहा है।
उठो, अर्जुनस्वरूप भारतीयों! नकार दो हर अपूर्णता को, हर संशय को, हर जगह से। बहा दो सत्य, प्रेम व कर्म की पवित्र गंगाधार जो सब गंदगी बहाकर ले जाए। सत्य के लिए कर्म ही धर्म है। आओ, प्रणाम के इस महायज्ञ में आहुति दो, अपने झूठ की अपने अहम् की और स्वार्थों की। कलियुग के बाद सतयुग ही आता है। कालचक्र का यह अटल नियम है। तो आओ, इस सत्य को जानकर सत्य का साथ दें और झूठ को नकार दें। जो सत्य का साथ देंगे, उन्हें सत्यमयी शक्ति रूपा महाकाली स्वयं शक्ति देंगी क्योंकि सत्य की स्थापना ही प्रकृति नियम है प्रभु का धर्म है।
- प्रणाम मीना ऊँ