नैना नीर भरे, नैना नूर भरे में बदलें यही मेरी भक्ति तथा आस्था है। प्रकृति स्वयं ही कर्म का पाठ पढ़ाएगी। जागृत चेतना स्वयं ही रास्ता दिखाएगी, दूसरों की चेतना को भी जगाएगी।
दुख आता है बुद्धि का अंधकार मिटाने, बीमारी आती है शरीर का विकार मिटाने और जब प्रश्न आते हैं क्यों आती हैं त्रासदी दुर्घटना, विपत्ति और आपदा तो समझो आत्मा का अंधकार मिटाने की बारी है। जब-जब ऐसे प्रश्न उठते हैं तो सबको एकचित्त होकर, एकाग्रता और सच्चाई से, कि हम कहाँ गलत हुए, हल अपने अंदर ही खोजना है। यही सच्चा ध्यान लगाना या मेडीटेशन करना है। जैसे ही हमें अपनी गलती का अहसास होता है प्रकृति अवश्य मदद करती है दुख की निराशा को आशा में बदलने की, शरीर के आलस्य को कर्म में बदलने की और आत्मा के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश व भक्ति में बदलने की। यही प्रकृति माँ की उदारता है। ज्ञान भक्ति बिना अधूरा है और भक्ति ज्ञान बिना अपूर्ण है।
अब जबकि गुजरात पर प्रकृति का प्रकोप हुआ है तो बाहरी मदद खूब मिल रही है बहुत अच्छी बात है मानवता ने मानवता का दर्द समझा। पर अब वहाँ के लोगों को यह भी समझना होगा कि संभलने के लिए आत्मशक्ति जुटानी ही होगी।
जापान में हिरोशिमा पर जो बम गिरा था उससे भी चार सौ गुना से अधिक विस्फोटक यह आपदा टूटी है। जापान के कर्मयोगियों ने फिर से सिर उठाकर पहले से भी सुंदर संसार रच लिया है। कर्मरत होकर नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर लिए। शायद यही प्रकृति की इच्छा है कि महात्मा गांधीजी की धरती पर स्वाभिमान और मनोबल सत्य रूप होकर पूर्णरूप से जागृत हो जाए। जो भी कुरूपता आई है उसे अपने सत्य, प्रेम व कर्म से सत्यम् शिवम् सुंदरम् में बदल दें। जो पवित्रता, सादगी और कलाएँ उनकी विरासत हैं उसे फिर से नए कलेवर में ढालें। यही सतत् संकल्प उन्हें शक्ति देगा और सारे विश्व का सौहार्द व प्रार्थनाएं अवश्य रंग लाएँगी। अब यही शिक्षा लेनी है कि सच्ची नीयत से अपना मानव जीवन संवारना है। बुल्ले शाह जी का कहना है:-
जेे रब मिलदे पानी डुबयाँ ते मिल्दे कछुआ मछियां
जे रब मिल दे उल्टे टंगियाँ ते मिल्दे चाम चिड़िकियां
जो रब मिल दे वन-वन घुमयां ते मिल्दे गायां मज्जियां
वे बुल्ले रब उनानूं मिल्दे जिना दियां नीयतां सच्चियां।
अर्थात- अगर प्रभु पानी में डुबकियाँ मारने से ही मिल जाते तो कछुओं मछलियों को मिलते। अगर उल्टे टँगने वाले हठयोग से मिलते तो चमगादड़ों को मिलते। अगर वन-वन घूमने से मिलते तो गायों-भैसों को मिलते। मगर प्रभु तो उनको मिलते हैं जिनकी नीयत सच्ची होती है।
तो भई अब सच्चा तो होना ही होगा। सत्य, कर्म और प्रेम ही महामंत्र है हर आपदा से निपटने का। किसी भी विधि से पका-पकाया आनन्द नहीं मिल सकता। कोई आपका दुख नहीं झेल सकता। हाँ , केवल कुछ हद तक बाँट ही सकता है पर अपने दुख को प्रभु की दी तपस्या समझकर, पूर्ण समर्पण से, पूरे मनोयोग से, आस्था व भक्ति की डोर थाम कर उबर आना ही मानव जीवन का धर्म है।
जब गुजरात के भूचाल के बारे में एक घर का काम करने वाली से पूछा तो उसके उत्तर ने जैसे सारा दर्शन सरल शब्दों में निचोड़कर रख दिया। उसका उत्तर था-‘जब हमार बचवा लोग सैतानी और बदमासी करत हैं तो हम कितना गुस्सा करत हैं बहोत मारते पीटते भी हैं तो ये धरती माँ कब तक चुपचाप अपने बच्चों का बदमासी बरदास करेगी? कभी न कभी तो गुस्सा आवेगा ही। ठीक ही है, यह बात शायद वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों के गले न उतरे। पर इतना जरूर है कि यह इतनी सरल सी बात हमें कितना बड़ा संदेश देती है कि अब भी समय शेष है कि अपने अंदर झाँक कर अपना सत्य देखने का। सत्य जान कर आत्मा का अंधकार मिटाना होगा। अपने ऊपर काम करना ही होगा। क्योंकि प्रकृति की अपनी निष्कलंक न्याय व्यवस्था है। प्रकृति को जीतना नहीं है उससे दोस्ती करनी है। अपनी-अपनी प्रकृति पर काम करके प्रकृति के ही अनुरूप होना है। प्रकृति की तरह उदार भी होना है और असंतुलन और अपूर्णता को नकारना भी है।
दुनियावी अदालत में बड़े से बड़े झूठ को बहस कर आप सत्य बना भी दें, तो भी असत्य तो असत्य ही रहेगा ऊपर वाले की अदालत में जो आपके अंतर्मन में ही लगती है। कोई ऊँची से ऊँची बहस भी असत्य को सत्य सिद्ध नहीं कर सकती। वहाँ सत्य ही सत्य होता है। यह अदालत कभी कोई फैसला नहीं देती कर्म कर देती है और इसके सजा देने के भी अपने ही तरीके हैं, जो सांसारिक तरीकों से कहीं अधिक भयावह और कष्टदायी हैं। कहते हैं न ऊपर वाले का कोड़ा व लाठी बेआवाज़ होती है। हम सबको हर त्रासदी से सीखना ही होगा। वह दिन प्रत्येक प्राणी के जीवन में आता है जब वह अपने से ही पूछते हैं कि कहाँ गलत हुआ जो यह भोगना पड़ा। आदमी हमेशा अपनी की गई अनीतियुक्त और असंयमित क्रियाओं का फल ही भोगता है। अपने मानसिक विकारों का मवाद झेलना पड़ता है शारीरिक और मानसिक व्याधियों के रूप में। ईर्ष्या, क्रोध, बैर, अहंकार व लोभ के जो भी विचार हम अपने मस्तिष्क से तरंगों के रूप में छोड़ते हैं वे हमसे कभी न कभी अवश्य टकराएँगे ही, घूमकर हमारे तन-मन पर आघात करेंगे ही, यही सत्य है। तो क्यों न हम प्रेम ही प्रेम की तरंगों का विस्तार करें ताकि प्रसन्नता ही प्रसन्नता प्राप्त हो।
यदि हम हर आपदा का उत्तर न भी जान पाएँ तो क्या हुआ? शिक्षा तो ले ही सकते हैं। असल बात है ज्ञान। पूरी बात समझने का एक ही रास्ता है ज्ञान, वह ज्ञान जो अनुभव कर लिया जाए सबक की तरह समझ लिया जाए और इस ज्ञान के बाद तत्वबुद्धि कि क्या कर्म किया जाए और यह जानकर तुरंत पूरे तन-मन से कर्म किया जाए। आपदा किसी पर, कहीं भी आ सकती है, पर तैयार रहना होगा। प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक विचार या प्रत्येक घटना जो हमारे जीवन में आती है उसका कुछ न कुछ मकसद जरूर होता है कुछ न कुछ संदेश अवश्य होता है समझने वाला जीवन-पथ पर आगे बढ़ जाता है न समझने वाला समय से पिछड़ जाता है।
गुजरात की धरती द्वारका में श्रीकृष्ण के वृश्नि वंश का पूर्णतया नाश क्यों हुआ था? क्योंकि वे श्री कृष्ण की कृपा की छत्रछाया को आलस्यपूर्वक भोगों में लगा रहे थे। कर्महीन होकर ऐश्वर्य भोगने लगे थे, अहंकार और दंभयुक्त जीवन जीने लगे थे सब नष्ट हो गए। उनमें कुछ निर्दोष और कुछ कम दोषी भी होंगे। इससे यह समझना है कि यदि हमारे अंदर सच्ची करुणा जगी है कि क्यों कुछ निर्दोष भी प्रकोप की चपेट में आते हैं तो यह और भी जरूरी है कि हम अपने ऊपर काम करें ताकि हमारे सच्चे मन की दुआएँ रंग लाएँ और किसी घर में दुख न आए। अपने पर काम कर सत्यमय और प्रेममय होना ही होगा तभी तो हमारी वैदिक प्रार्थनाएँ सुनी जाएँगी। क्योंकि सत्य व प्रेम से परिपूर्ण हृदय में प्रभु का वास होता है।
ऋग्वेद का एक सूक्त है- उद्बुध्यध्वं समनस: सखाय:
‘हे एक विचार वाले एक प्रकार के ज्ञान से युक्त मित्रजनो उठो!
एक ही विचार वालों की एक अनदेखी-सी संस्था होती है चाहे उनका आपस में सम्पर्क न हो जब ऐसे सत्य योगी और प्रेम योगी मन से जुड़ते हैं तो अपार ऊर्जा शक्ति का स्रोत बहता है। सबको मिलकर भूचाल पीड़ितों के लिए सद्बुद्धि व सुख की प्रार्थना करनी है और शक्ति भेजनी है कि वे अपने अंतर से जुड़कर सत्कर्म करने योग्य होएं। छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है-
प्रकृति की सब कृतियों की, सूर्य की, ऋतुओं और वनस्पति आदि की कभी निंदा न करें कभी न कोसें। मैं ही सबमें हूँ ऐसी उपासना करो, ऐसी उपासना करने वाला सब कामनाओं से समृद्ध होता है। तीन धर्म स्तंभ निबाहो पहला-यज्ञ, अध्ययन और दान, दूसरा-तपस्या और तीसरा-सत्याचरण से सत्संग में रहकर अपने को अंत तक घिसना अर्थात कर्म करना यह तीनों करने वाला ही पुण्य का भागी होता है अमृत पाता है। सबको अपना अपना सलीब खुद उठाना होता है। खुद सलीब उठाओ खुदा बनो जब सब खुदा रूप एक ही प्रेम के नूर से प्रकाशित होंगे तभी होगी वसुंधरा स्वर्ग रूप-
जननी जन्मभूमिश्च् स्वर्गादपि गरीयसी
सर्वेषां स्वस्तिर भवतु
सर्वेषां शार्न्तिभवतु
सर्वेषां पूर्णं भवतु
सर्वेषां मंगलं भवतु
सबका भला हो सब शान्तिमय हो सब पूर्णता पाएँ और सबका मंगल हो।
यही प्रणाम का सत्य है, कर्म है, प्रेम है,
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ