हम अपने जीवन में सुख दुख की बातें करते हैं। आत्मा- परमात्मा मोक्ष आदि की बातें करते हैं। कभी इनके वास्तविक अर्थ की तलाश नहीं करते जरा पता तो लगाएँकि दुख आखिर क्या है।
हमारे वेद पुराणों में ”दुख” शब्द का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। वहाँ तो केवल एक ही नियम का उल्लेख है- कोई गलती हुई है तो उसका पश्चाताप करो। पश्चाताप का तरीका है ”तप”। तप यानी बुद्धि शरीर व मन की शुद्धि उन्हें इन्द्रिय जनित लालसाओं से वंचित करके अपने सत्य को जानना पहचानना।
वैदिक काल में इस तरह के कष्ट दुख नहीं उपजाते थे अपितु सहर्ष स्वीकार्य होते थे। यह शब्द ”दुख” तो महात्मा बुद्ध के समय से प्रचलन में आया। माना जाने लगा कि हम जिस कष्ट का अनुभव कर रहे हैं वह दुख है। जब मनुष्य जीवन में आई कठिन स्थितियों-परीक्षाओं को दुख मान लेता है तो उसका जीवन दुरुह हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा मोक्ष और पुनर्जन्म आदि के सही अर्थों और व्याख्याओं को जानने की आवश्यकता है।
आत्मा क्या है? वास्तव में आत्मा वह ऊर्जा है जो भावों व कमों की संवाहक व प्रसारक है और वो हमारे अंतिम समय में अंतिम भाव की भी वाहक है। शरीर से पृथक होने के बाद यह भाव, थोड़े स्थूल रूप में कहें तो ”शक्ति पुंज” ब्रह्माण्ड में एक निश्चित जगह की ओर जाता है आत्मिक उत्थान के अनुरूप, आमतौर पर आत्मा एकदम वापस नहीं आता, पर लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए, उस भाव को ग्रहण करने वाला उचित पात्र, receiver, मिल जाए तो वह उस भाव को पकड़कर पुनर्स्थापित होता है। जो कि प्रकृति के चिरन्तन प्रगतिकार्य को आगे बढ़ाता है।
मोक्ष क्या है : मोक्ष की जो सामान्य व्याख्याएँ मिलती हैं उनके अनुसार जीवन मरण के चक्र से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। जबकि सत्य तो यह है कि यदि मानव चाहे तो इस शरीर में रहते हुए भी मोक्ष पा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि वह आत्मवान बने। पर आत्मवान व जागृत होना सरल नहीं है। ऐसा तभी हो पाता है जब मानव का समूचा अस्तित्व सत्य कर्म प्रेम व पूर्ण समर्पण वाली भक्ति से देदीप्यमान होता है। तब वह शुचितापूर्ण प्रकृति के मंदिर जैसा हो जाता है जिसमें ईश्वरीय सत्ता स्वत: ही विद्यमान होकर अपने कार्यों को मूर्तरूप देती है और इसके लिए मनुष्य को सब साधन प्रदान करती है व उपलब्ध कराती है। एक जागृत व्यक्ति के सम्पर्क मात्र से किसी दूसरे व्यक्ति की चेतना भी जागृत हो सकती है। यह भी ध्यान रहे कि व्यक्तिगत लाभ की इच्छा से युक्त मन के साथ आत्मिक खोज सदा ही असफल होगी। इसमें मन की स्वीकृति और एक निश्चयवाली बुद्धि बहुत आवश्यक है। सत्य की खोज कभी भी अधूरे मन बँटी हुई ऊर्जा व दुविधा के साथ नहीं हो सकती सत्य ही सत्य तक पहुंचता है।
आत्मवान हो जाना यह एक प्रकार से आत्मा का हंस हो जाना है। ऐसी अवस्था में मानव हंस की तरह ही परमात्मा के सच्चे संदेश के मोती बीन लेता है और उसे सृष्टि के रहस्यों का ज्ञान होने लगता है। पर हमारी तर्कबुद्धि हमारे आत्मवान होने की राह में बाधा डालती है। जहाँ तर्क आता है वहाँ हम परम सत्य से दूर हो जाते हैं… दूर होने लगते हैं। तब सृष्टि की स्वाभाविक लय से अलगाव हो जाता है। सृष्टि तो असल में भावरूप से चलती है जड़ पदार्थ भावों को ज्यों का त्यों ग्रहण करते हैं तभी प्रकृति की प्राकृतिक उत्थान प्रक्रिया- उत्पत्ति पूर्णता व संहार के स्वाभाविक भागीदार बनते हैं पर मानव की बुद्धि भावों को तिरोहित कर देती है। क्योंकि मानव सृष्टि की व्यवस्थाओं पर अपने तर्क संदेह व द्वैत भाव के कारण अपने विचार आरोपित करता है।
वैसे तो प्रकृति और मानव एक-दूसरे के प्रतिरूप ही हैं पर द्वैतभाव ने दोनों में दूरी बना दी है। एक और कर्म सत्य की खोज के लिए आवश्यक है वह है ऊर्जा और तेज को सही दिशा में प्रयुक्त करना। हमारी ऊर्जा किस दिशा में जा रही है और उसे कैसे सत्यमय लक्ष्य की ओर केंद्रित करना है यही तो विवेक है।
यजुर्वेद में एक सूक्त है सं ज्योतिष: ज्योति इसमें तेज से तेज को मिलाकर तेजस्विता बढ़ाने का आह्वान किया गया है। यदि सभी सत्यमार्गी अन्वेषक योगी कर्मयोगी आदि तेजोमय व्यक्तित्व और सभी मानवहित हेतु कर्मरत संगठन इस तेजस्विता यज्ञ में अहम् त्याग, मिलकर आहुति डालें तो देश व विश्व की सभी समस्याओं के निदान हेतु राह निकल सकती है और विश्व में भारत की गौरवमयी प्रतिष्ठा स्थापित व सिद्ध हो सकती है। मानव के सम्पूर्ण विकास व विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ