ज्ञान जाने सो ज्ञानी : अज्ञान को भी जाने सो तत्वज्ञानी

जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।

म्यान ही अज्ञान है और अब हाल यह है कि म्यान जितनी ज्यादा चमकदार सोने चांदी वाली हीरे मानक जड़ी होगी, उतना ही चारा डल जाएगा भेड़चाल वाली मानसिकता के सामने। ज्ञान तो बस एक ही बिन्दु समान है बाकी सब अपनी अपनी बुद्धि और अपने व्यक्तिगत हिसाब और सामर्थ्य के फैलाव ही फैलाव हैं।

उपनिषद् में कहा गया है कि सच्चा साधक वही है जो भूसे की तरह सारे ज्ञान को पोथियों को छोड़कर एक मोती बीन ले और उसी पर अपने सत्य को परख-परखकर जीवन को ऐसी ज्योति बना ले जो जनमानस को जगा दे। जितना ज्ञान को जानना जरूरी है उतना ही यह भी जानना जरूरी है कि अज्ञान क्या है। क्या छोड़ना ही होगा ज्ञान पाकर उसे जीवन में उतारकर, अनुभव कर उसमें नया जोड़ना युग चेतना के हिसाब से, यही उत्थान की सीढ़ी है न कि ज्ञान पाकर उसे भुनाना शुरू कर दिया जाए। सच्चा ज्ञान तो बीज है उसे पनपने दो जब फल का समय आयेगा तो अपने आप कोयल भी बोलेगी और दुनिया भी जान जायेगी।

साधना का अर्थ अपने आप को साध लेना ही है। विवेकानंद जी ने बताया-साधना के रास्ते में सिद्धियाँ तो आयेंगी ही। किसी में वाक्पटुता की, किसी में भूत-भविष्य बताने की, किसी में दिव्य-दर्शन इत्यादि और भी कई प्रकार की व्यक्ति विशेष सिद्धियाँ। पर सब सिद्धियाँ सत्य के रास्ते की परीक्षाएँ हैं, गढ्ढे हैं और जो इनमें गिर गया वह कभी भी उबर नहीं पाता। उपनिषदों का भी यही संदेश है कि अज्ञानी का दीया फिर भी कभी न कभी जल सकता है मगर जो अपने ज्ञान में रम गया, ज्ञान के अहंकार व अहम के अंधे कुएँ में गिर गया उसका उद्धार सम्भव नहीं। ज्ञान चरमोत्कृष्ट स्वरूप मानव का, पाने की सीढ़ी है। अपने को जानने, अपना मिशन व अपना कर्म इस धरती पर निर्धारित कर इसी शरीर में शान्त समाधि धारण करने और आगे ही आगे बढ़ने का माध्यम है ज्ञान, पर यहाँ हाल यह है कि ऊपर अभी पहुँचे भी नहीं सीढ़ी का ही बखान करने लगे या अगर ऊपर कहीं पहुँचे भी तो सीढ़ी साथ-साथ उठाए घूम रहे हैं।

समाज में हर क्षेत्र में हर चीज़ को व्यापारिक दृष्टिकोण से मापना ही एकमात्र दृष्टिकोण रह गया है यही तो तांत्रिक मानसिकता है। शक्तियों, सिद्धियों व अन्य भौतिक व आध्यात्मिक उपलब्धियों का प्रयोग अपना महत्व व प्रभुत्व मनवाने व जताने की अंधी चूहा-दौड़ में लगाने को ही मन की शक्ति मान लिया जाता है। जबकि यह तथाकथित मन की शक्ति मानव के स्वार्थी व अहमयुक्त दिमाग की उपज है। मन की शक्ति तो आत्म-शक्ति से ही प्राप्त हो सकती है और वह भी बस प्रभु कृपा से ही और जो सदा पूर्ण समर्पण में रहकर परम शक्ति के सत्य, प्रेम व कर्म का ही प्रकाश फैलाती है।

बहुत अच्छी बात है अपने ज्ञान और बुद्धि के अनुसार मार्ग चुनकर साधना करो। मगर अपने चारों ओर की चैतन्यता के प्रति जागरूक व चैतन्य तो रहो यही तो जागरण है। पर क्या कहने हमारी साधना के जो विश्वामित्र की तरह धन, मान, प्रतिष्ठï व प्रचार की मेनकाओं से तो डोल जाती है पर जिस धरती माँ से ज्ञान, ध्यान जीवनदान लिया जहाँ पनपे, उसकी शोभा नष्ट होते देखकर भी दग्ध नहीं होती।
दया करना उस पर वाजिब, जो शख्स दया के काबिल हो।

दया करो सब जानते हैं मगर यह नहीं जानते किस पर करनी है। यही अज्ञान है। प्रत्येक शिक्षा का दूसरा पक्ष भी साथ ही जुड़ा होता है जैसे सिक्के के दो पहलू। हम एक पक्ष जानते हैं और दूसरे को अज्ञान मान लेते हैं जबकि उसी अज्ञान में ज्ञान की पूर्णता की परिणति है ज्ञान की सम्पूर्णता का ज्ञान है। कभी कभी अगर हम किसी की सेवा न करें तो उस पर ज्यादा उपकार होगा। यह जानना कि अज्ञान कहाँ और कैसा है और उसे विवेक से समझकर व्यवहार और कर्म निश्चित करना ही अज्ञान को जानना है। अज्ञान को जानना ज्ञान जानने से भी अधिक कठिन होता है क्योंकि जब तक ज्ञान का पूर्ण व्यावहारिक व जीवंत अनुभव नहीं होता तब तक अज्ञान तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। ईश्वर की सृष्टि व सत्ता में प्रत्येक विपरीत प्रकृति का भी पूर्ण महत्व है। यही तो वह सम्पूर्ण, सत्यम् शिवम् सुंदरम् सार्वभौमिक तत्व है ब्रह्माण्ड का जिसके आधार पर समूचे ब्रह्माण्ड का क्रियाकलाप चिरंतन गति से निर्बाध रूप से युगों युगों से चल रहा है। तो विपरीतों और समरूपों दोनों को ही जानना और संतुलन बनाना है। यही वह लयबद्धता है जिससे सारी प्रकृति लयबद्ध है। कुछ भी असुंदर व अकारण नहीं, सबके अपने-अपने गुण हैं। उन गुणों को जानकर कर्म निश्चित न किया तो सारा ज्ञान-अज्ञान में बदल जाता है। यहाँ गुणों से तात्पर्य अच्छाइयों से नहीं है। रज, तम, सत प्रकृति प्रदत्त गुणवत्ता से है। जिसे देखो अज्ञान के पीछे कठोरता से पड़ा है, अरे जी हम तो ज्ञान से अज्ञान को काट ही देंगे। पर भइया जिस ज्ञान की तलवार से काट रहे हो पहले तो वही कमजोर है, पूर्ण नहीं है। उस पर पता ही नहीं किस अज्ञान के शेर को मार रहे हो। हवा में ही तलवार लहराए जाओ। पहले ज्ञान और अज्ञान दोनों का विज्ञान जानकर, विवेक को पूर्ण कर पूर्णता में समा जाओ। सत्य वेद ज्ञान को आत्मसात् कर जीकर, सत्य का सुदर्शन चक्र, अज्ञान का मूल पहचानकर चलाओ।

श्रीकृष्ण ने भी सुदर्शन चक्र पूरे जीवन में तीन बार ही चलाया। सत्य का सुदर्शन चक्र बार-बार मच्छर मारने के लिए नहीं होता। अज्ञान भी उतना ही बलवान होता जाता है जितना ज्ञान का फैलाव होता जाता है। यही प्राकृतिक नियम है और इस नियम का उद्देश्य होता है संभवामि युगे युगे, चरितार्थ करने का सिद्ध करने का। कुछ भी अकारण हो ही नहीं सकता। सब सत्य है और सत्य से ही जाना जा सकता है और सत्य के लिए कर्म ही सच्चा धर्म कर्म है। ज्ञान व अज्ञान को जानना व पहचानना ही विवेक है और जो जान गया व जानकर जिसकी चेतना शान्त समाधि में पूर्णतया सहज हो गई उसकी आत्मशक्ति से ही सब शुभ संकल्प स्वत: ही पूर्णता पाते हैं। उसके सब क्रियाकलाप सहजता से संपन्नता पाते हैं। सत्य सदा ही चेष्टारहित है पर कर्मरहित नहीं। श्रीकृष्ण का वचन- ‘सहज कर्म कौन्तेय पूर्ण सहज अवस्था को प्राप्त चेतना के आधार पर जाकर कर्म करना है। पूर्ण सहज अवस्था, जो ज्ञान-अज्ञान से परे मान-अपमान से परे सब भावों से परे जाकर परा ज्ञान प्राप्ति का कारण है।

यही है ज्ञान और अज्ञान को विज्ञान से जानकर वेदवत् होना। इसी श्रेष्ठतम श्री विद्या को सदा प्रणाम। यही है प्रणाम का सबके सत्य को प्रणाम। यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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