भारत एक धर्मपरायण देश है। कोने-कोने में गीता गूँजती है। जन्माष्टमी पर तरह-तरह के आयोजन कर गीता के सृजनहार को याद किया जाता है। खूब धन व्यय किया जाता है। भजन-कीर्तन की भरमार रहती है मगर गीता के वचनों पर चलने की बात, उसे जीकर जीवन धन्य करने की बात इस पूजा-पाठ के शोरगुल में अनायास ही कहीं खो गई है।
अगर गीता को गुनकर जीया जाए तो भारत की सारी समस्याएँ खुद ही हल हो जाएँगी। गीता आत्मा है भारत की उत्कृष्ट संस्कृति की। भारत के शरीर को तो आज़ादी मिली मगर आत्मा अभी भी स्वार्थी मानसिकता के गिरवी रखी हुई है और जब तक आत्मा जागृत नहीं होती शरीर को तरह-तरह की व्याधियाँ सताएँगी ही। भारतीयों का धर्म में विश्वास तो है पूजा पाठ भी है पर कर्म एकदम नदारद है। गीता के दूसरे अध्याय में इक्तीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं-
धर्म्याद्धि युद्धाच्छेयोऽन्यात्क्षत्रियस्य न विद्यते
अपने धर्म को देखकर भी तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ है कि जिस युद्ध का आरम्भ अनीति या लोभ के कारण नहीं किया गया हो एवं जिसमें अन्याय का आचरण न किया जाता हो किन्तु जो धर्म व न्यायसंगत हो, कर्तव्य रूप से प्राप्त हो ऐसा युद्ध ही क्षत्रिय के लिए अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक कल्याणकारी है।
क्षत्रिय के लिए उससे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणप्रद धर्म है ही नहीं, क्योंकि धर्मयुद्ध करने वाला क्षत्रिय अनायास ही इच्छानुसार स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
इसी अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं:-
यदृच्छया चोपपन्न स्वर्गद्वारम् पावृतम् ,
सुखिन क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।
हे पार्थ! अपने आप से प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। इस श्लोक में अर्जुन को पार्थ नाम से पुकार कर उन्हें वह बात याद दिलाना चाहते हैं जो कुन्ती ने श्रीकृष्ण से कही थी :-
एतद्धनन्जयो वाच्यो नित्योद्युक्तों वृकोदर:
यदर्थ क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागत:।
अर्थात् धनंजय अर्जुन से, और सदा कमर कसे तैयार रहने वाले भीम से तुम यह बात कहना कि जिस कार्य के लिए क्षत्रिय माता पुत्र को जनती है अब उसका समय सामने आ ही गया है। यदृच्छया चोपपन्नं विशेषण देकर प्रभु यह समझा रहे हैं कि तुमने यह युद्ध जानबूझ कर खड़ा नहीं किया है। तुम लोगों ने तो संधि करने की बहुत कोशिश की परंतु जब किसी भी प्रकार तुम्हारा धरोहर रूप में रखा राज्य दुर्योधन लौटाने को तैयार नहीं हुआ तब तुम लोगों को बाध्य होकर युद्ध का आयोजन करना पड़ा है। अत: यह युद्ध तुम्हारे लिए अपने आप प्राप्त है।
अगले श्लोक में प्रभु कहते हैं:-
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि,
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।
अगर तू इस धर्म युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म व कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। भाव है कि यह युद्ध धर्ममय होने के कारण अवश्य कर्तव्य कर्म है। यदि यह युद्ध नहीं करोगे तो तुम्हारे स्वधर्म का नाश होगा और जो तुम पाप के भय से युद्ध त्याग रहे हो यह धर्मसंगत नहीं है।
श्रीकृष्ण व गीता की पूजा इतनी धूमधाम से करने वालों से यही प्रश्न है कि यदि गीता को जीना नहीं है तो उसे मानने का ढोंग या आडम्बर क्यों किया जा रहा है। इससे क्या मिलेगा। कुछ भी तो वैसा नहीं हो रहा है जैसा कि गीता में बताया गया है। कहाँ हैं कर्तव्य कर्म, सत्य और प्रेम के पथ पर चलने वाले कर्मठ व तत्पर मानव, हैं तो पर गिने चुने जिनकी आवाज नक्कारखाने में तूती जैसी गुम है।
पर प्रणाम पूर्ण आशावान है वह हर कर्मयोगी सत्ययोगी व प्रेमयोगी को पूरा सहयोग व शक्ति देने को कृतसंकल्प है। अब जागरण अवश्यम्भावी है गीता का ही वचन है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं अपना रूप रच कर सामने आता हूँ। प्रणाम इसी अटूट सनातन सत्य के विश्वास की उत्पत्ति है। यही प्रकृति का अद्वितीय नियम है हर बात जब चरम सीमा पर होती है तो उसे जाना ही होता है और अब समय की यही मांग सामने है। समय की मांग को जानकर कर्म और धर्म संगत कर्त्तव्य को उद्धत और तत्पर मानव ही अपने मानव जीवन को सार्थक कर समाज और नई पीढ़ी के लिए उदाहरणस्वरूप बन जाता है।
प्रणाम जानता है:-
धर्म है अपूर्णता को कर अस्वीकार,
कर्म है पूर्णता को कर अंगीकार
क्योंकि भारत भूमि ने सदा दिया है
युग पुरुष, युग पौरुषी का, शिव शक्ति का,
सत्यम् शिवम् सुंदरम् का अद्भुत संगम
बार-बार पूर्ण अवतार
सुन समय की पुकार,
यही है प्रणाम का आधार
यही सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ