कर्मयोग की ओर

कर्मयोग की ओर

  • प्रत्येक कर्म में उन्नति, उत्थान व सर्व कल्याण का ध्यान।
  • प्रत्येक कर्म जैसे पूजा अर्चना अर्पण व तपस्या के भाव में करना।
  • पूर्णता प्राप्त करना है उत्कृष्टता से प्रत्येक कर्म करना है यही धारणा सदा बनी रहे। कुछ प्राप्ति हो इस फल की इच्छा से रहित होकर।
  • कर्मों में स्वच्छता सुन्दरता, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, व्यवस्था व संतुलन लाना सीखना होता है।
    क्या तुम क्षुद्र वस्तुएं भगवान को चढ़ाते हो। मंदिर में ऊट पटांग कपड़े जूते या श्रृंगार कर जा सकते हो? नहीं ना, या तो मंदिर जाओ ही ना कभी भी, क्योंकि मजे लेने के लिए और भी बहुत स्थान हैं और अगर मंदिर जाना भी है तो सुपात्र बनो, पावन भाव, पवित्र काया और निश्च्छल आत्मा से प्रवेश करो।
  • अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से कर्म करना ही सबसे अच्छा कर्म है।
  • प्रत्येक कर्म में और अधिक श्रेष्ठता की संभावना सदा ही रहती है। बोर होना या पूरा कर लिया का कोई चक्कर होता ही नहीं। बोर होना या निबटा देना जैसे तैसे, पलायन और आलस्य है। प्रकृति प्रत्येक कर्म पूर्ण आनन्द धैर्य और सौन्दर्य से करती है सतत निरन्तर निर्बाध… इसी प्राकृतिक नियम का अनुसरण करना मानव का धर्म है।
  • पूर्ण दक्षता से किया गया कर्म, प्रत्येक विधा को ध्यान में रखकर किया कर्म, पूरी देखभाल, आनन्द से और मानसिक प्रेमपूर्ण संवाद वस्तुओं से किया हुआ प्रत्येक वातारण को शुद्धता प्रदान करता है।
    इससे प्रत्येक वस्तु से एक अद्भुत तारतम्य हो जाता है और वो प्रभु की संदेशवाहक बन जाती है। हर क्षण चमत्कारिक अनुभूति होने लगती है।
    सब कुछ सहयात्रा जैसा लगने लगता है। जड़ चेतन, चारों ओर सभी आत्मिक साथी लगने लगते हैं। अकेलेपन का भाव समाप्त हो जाता है, एकत्व का भान होता है। सदा आनन्द लगता है, जीवन धोखा या माया नहीं लगता। जीवन के उद्देश्य व सार्थकता का ज्ञान होता है यही है सत्कर्म, सही कर्म की महिमा।
    यही सत्य है
  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे