जब जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर नहीं बन पड़ते या नहीं कह पाते तो कह देते हैं कि पिछले जन्मों के कर्मफल हैं। कोई अमीर घर में पैदा क्यों होता है, कोई गरीब घर में पैदा क्यों होता है, जीव की उत्पति अपने अनुकूल वंशानुगत वातावरण में होती है।
नाली का कीड़ा नाली में ही बच्चा पैदा करेगा। इसमें पिछले कर्मों को दोष देना व्यर्थ है। वैसे भी हम भारतीयों का राष्ट्रीय चरित्र बन गया है- अपनी कमियों असफलताओं का दोषारोपण दूसरे पर डाल देना। यह आलस्य है, कर्म न करने का बहाना है।
यदि गरीबी पिछले जन्मों का कर्मफल होता तो कोई-कोई गरीब दुनिया का सबसे बड़ा अमीर क्यों बन जाता है? कारण है, तत्बुद्धि ज्ञान और कर्म। सही दिशा में कर्म पूरे मनोयोग और पुरुषार्थ से न कि पिछले जन्मों का कर्मफल।
अगला-पिछला जन्म किसने देखा है। सब प्रश्नों को टालने के बहाने हैं या यह भी हो सकता है कि साधारण मानव को पूरी बात शायद समझ में न आए तो न्याय-व्यवस्था बनाए रखने को कह दो कि भगवान से डरो। और यदि असन्तुष्टï हैं अपने वातावरण से तो संतोष करने को कह दो कि भई यह तो पिछले जन्म के कर्म हैं, भोगने ही होंगे। कर्मचक्रों का पूरा ज्ञान बताना कठिन होता है।
तो बात यहाँ ठहरी कि असली बात है- ज्ञान, सब बात पूरी समझने के लिए ज्ञान, शिक्षा ही मार्ग है तभी सही दिशा मिलेगी। सही गुरुओं का कर्त्तव्य है कि अंधविश्वास, व्यर्थ के आडम्बरों व ढकोसलों में फँसाने या दिमाग घुमाने के बजाय सही मार्गदर्शन करें, ज्ञान दें। कर्म का पाठ पढ़ाएँ। उचित-अनुचित समझने योग्य बुद्धि का विकास करें, न कि ज्ञान को अपने तक सीमित रखकर, खुद ज्ञानी होने का अहम् पालते रहें। अपने ज्ञान को भुनाते रहें, दूसरों को मूर्ख बना-बनाकर। ज्ञान देने के नाम पर अधूरा ज्ञान देकर, प्रदर्शन कर अपने लिए दुनियाभर के ऐशोआराम एकत्र करना, भोगना कहाँ का न्याय है या कैसा संत होना है। दूसरों को संतोष की, जीवन की आवश्यकताओं को कम करने की शिक्षा देने वाले स्वयं अपने लिए क्या-क्या नहीं जुटाते। क्या-क्या राजनीति नहीं खेलते, किससे छुपा है पर फिर भी लोग अंधे हो जाते हैं।
क्या पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा मानने वालों का ज्यादा उत्थान हुआ है। पुरानी मान्यताओं धर्म व्यवहार व पूजा-पाठ का जो विकृत और भ्रष्ट रूप हमारे सामने है, क्या यही उत्थान है और यह हमें कहाँ ले आया है। भ्रष्टाचार लूट-खसोट हिंसा व अंधी दौड़ के गर्त में। क्या यही हमारी प्राचीनतम संस्कृति है जिसे बचाने का ढोंग हम ढिंढोरा पीट-पीटकर करते हैं। संस्कृति बचती है उदाहरणस्वरूप बनकर अपनी नौजवान पीढ़ी के आगे।
आज का नौजवान समझदार है, समझना चाहता है कि जिस संस्कृति और धर्म का हम ढिंढोरा पीटते हैं उससे क्या लाभ हुआ मानव या मानवता का बोलो धर्म के ठेकेदारों, बोलो…
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ