यही कहे मन पुकारे मन
दूर हूँ बहुत मगर हूँ तो
तेरी ही डोर से बँधी
तेरे ही प्रेम में बिंधी
जब हो मन रीता तो गुने गीता
बना गुनावतार रज तम सत का
और भी कितने अवतार जिएँ इस मन में
गिन ही न पाए मन
पर मन ही मन मुस्कुराए मन
मन की अनन्त क्षमता पर
असार संसार की समता पर
खेल रहे तीन ही गुनों में सब
बने कठपुतली डोरी के लम्बाई की सीमा तक
बस लटके से धरती को छूने का
धरती पर होने का भ्रम पाले से
मतिभ्रम अपने अहम् के मोह के श्रम में
जीवन को घाले से
और देख रहा मन अवतारों का चक्षु बना सा
बस यही गुनता-सा क्या बचेगा क्या रहेगा
इनमें से छँटकर छनकर
जो आवेगा काम प्रकृति की कृति मानव को
और सँवारने के उपक्रम में
गुनातीत के पराक्रम में
सृष्टि की अनन्त यात्रा में
पल-पल बनते बिगड़ते
उठते गिरते से पंचतत्व के पुतले
अपने ही आप में रमते से
नींद में चलते से
पर एक ही सूत्र में बँधे
एक ही प्रकाश से संचालित
एक ही प्राण से पोषित
अपने ही अस्तित्व से अनभिज्ञ
यही तो है विस्मृति की चरमसीमा
पर क्यों दी प्रभु यह विस्मृति
मैं जानूँ यही तो है प्रकृति औ’
इस नटखट प्रकृति की प्रवृत्ति
यह रहस्य जाने प्रकृति या प्रकृति की मानसपुत्री
शरारती मन वाली दिल वाली
सबमें रहकर भी सबसे न्यारी मनु मीना
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ