आज ज्ञान इधर-उधर से ली गई जानकारी, कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा के बारे में होता है। इसमें उधार लिए हुए शब्द, बने-बनाए मंच और वैसे ही बनावटी श्रोतागण होते हैं। निष्क्रिय और कर्महीन दर्शक ही तो चाहिए बस ज्ञान का क्रियाकर्म करने हेतु। आज मुझे एक ऐसे ही गोष्ठी में जाने का अवसर मिला। मैं यह सोचकर वहाँ गई कि कुछ नया या क्रांतिकारी विचार सुनने को मिलेगा। लेकिन…
मानव निष्कर्षों में फँसा हुआ है जो तकनीकी प्रयोगात्मकता से प्राप्त होते हैं जिसे वह समझता है कि वह ज्ञान के तत्व व थाह तक पहुंँच गया है। वह अपने इस अहम के वशीभूत होकर बड़ी-बड़ी बातों और तकनीकी शब्दों से दूसरों को भ्रमित करता है, जैसे व्याख्याता वैसे ही जिज्ञासु। कृष्ण और अर्जुन के मध्य जैसा संवाद अब कहाँ! श्रीकृष्ण सच्चे ज्ञान के ज्ञाता व प्रत्येक कला में निपुण, प्रत्येक कर्म में पूर्ण, इसी प्रकार अर्जुन भी अपने लक्ष्य पर ध्यान पूर्णतया केन्द्रित करके उसे भेदने की योग्यता के मूर्तरूप थे। केवल एक बार जब अर्जुन भ्रमित हुए और दुविधा में फँसे तब श्रीकृष्ण से अपनी शंकाओं का समाधान पूछा। उनके पूर्णतया सटीक व सही उत्तरों के फलस्वरूप ही गीता जैसे महान गं्रथ की उत्पत्ति हुई।
आज के शिक्षक जो चेतना के बारे में बातें करते हैं वह पुराने बीते समय के ज्ञान जैसी बासी होती हैं। जो पूराने टूटे रिकार्ड की तरह है। बुद्धि से बोली गई ज्ञान का प्रदर्शन करने वाली ये बातें स्वीकार्य हैं इसमें कोई परेशानी नहीं है। पर वो जो सुनने आते हैं, उस विषय के बारे में अनभिज्ञ होते हैं अत: उनके लिए जो भी उस भव्य मंच से दिया जाएगा नया ही होता है, लेकिन उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि वे चेतना जैसे गम्भीर शब्दों को उसका सही अर्थ जाने बिना अन्य श्रोताओं के समक्ष ना उछालें। केवल पूर्ण चैतन्य मानव ही चेतना के बारे में बताने की योग्यता व क्षमता रखता है।
यदि नशीले पदार्थ या मनोविज्ञान पर व्याख्यान देना हो तो मनोविज्ञान या अपरा ज्ञान पर ही बोलना चाहिए। इसे चेतना से संलग्न नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से भ्रमित करने वाले, दुविधापूर्ण तथ्यों से और गलतफहमी ही पैदा होगी।
सत्य यह है कि मनोविज्ञान केवल अवचेतन मन की कुछ परतें ही उधेड़ता है। अवचेतन की सभी परतों को हटाकर ही व्यक्ति उस प्रकाश अथवा खुदा के नूर को अनुभव कर पाता है जो सबमें विद्यमान है और एकत्व का सार है।
मनुष्य की सभी क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ जिनको वह नहीं जानता वे अवचेतन द्वारा संचालित होती हैं। जो व्यक्ति ध्यान योग में लीन होता है वह इस पूर्ण प्रक्रिया के प्रति चैतन्य होता है। क्योंकि ध्यान की साधना से वह प्याज की परतों की तरह अवचेतन की सभी परतें खोल अंतर की रिक्तता स्थान तक पहुंँच जाता है। यह शून्यता ही उस व्यक्ति की अमूल्य पूँजी व सत्य की निधि होती है।
मस्तिष्क अवचेतन मन के संग्रह से नितांत अनभिज्ञ होता है। लेकिन सूचनाएँ सत्य के रूप में पूर्णरूप से उस रिक्तता में ही रहती हैं, जो ध्यान योगी के लिए सदैव उपलब्ध रहती हैं क्योंकि उसका संसारी मस्तिष्क और अवचेतन एक-दूसरे में विलय होकर एक हो जाते हैं और अवचेतन उसमें समाहित होता रहता है। सिर्फ यही एक ऐसी स्थिति है, जिसमें दुविधा नहीं होती और सत्य ज्ञान जागृत होता है।
सभी संदेश और निर्देश उस युगदृष्टा, Visionary, के मस्तिष्क में बीजरूप में रहते हैं जिसमें ज्ञान को चरमोत्कृष्ट तक ले जाने की क्षमता होती है। वह उनके प्रति पूर्णरूप से सचेत होता है परंतु उनमें लिप्त या आसक्त नहीं होता। यह अनासक्ति और आत्मसमर्पण की चरमावस्था है। ऐसी सरलता ही सत्य व दिव्य प्राकृतिक नियमों के स्थापन की सहज व स्वत: प्रेरणास्रोत होती है। इसी से समय की मांग के अनुसार कार्य करने की शक्ति मिलती है।
मनोविज्ञान के सांसारिक विज्ञान, अपरा ज्ञान से हम अवचेतन की सिर्फ पाँच या छ: परतों तक ही पहुँच सकते हैं जबकि ऐसी उञ्चास परतें हैं, जिन्हें वेदों में उञ्चास मरुत कहा गया है। केवल दैवीय ब्रह्माण्डीय ऊर्जा ही उन तक पहुँच सकती है जिनका आवाहन सिर्फ ध्यानयोग द्वारा ही संभव है। लेकिन सर्वोत्कृष्ट ऊर्जा पवित्र और निश्छल दैवीय प्रेम है, जो रामबाण औषधि है जो कि हम सबको मिली है एक-दूसरे का अवचेतन खाली कराने के लिए। ताकि रिक्तता में केवल प्रेम ही शेष रहे, व्याप्त रहे।
ईश्वर अवचेतन मन-मस्तिष्क में प्रेम रूप में रहता है। जैसे बीज पृथ्वी के गर्भ में रहता है। इस प्रकार यह ईश्वरत्व हमारे तन मन और आत्मा के सत्य प्रेम व कर्म तथा सत्य से पोषण पाकर फलता-फूलता है। जब एक बीज बोया जाता है तो पहले जमीन को जोतकर मुलायम व भुरभुरी किया जाता है ताकि इसे ताजी हवा खाद तथा पानी मिल सके। इसी प्रकार ध्यान की साधना से अवचेतन मन तैयार होता है सकारात्मक संकल्प का बीज रोपने के लिए। फिर बीज बोने के बाद, इसे शीघ्रता से उगाने के लिए न तो कोई जबर्दस्ती की आवश्यकता होती है और न ही हम हाथ पर हाथ रखकर बैठकर यह सोचते हैं कि अब बो दिया है तो यह अवश्य उग ही आएगा। इसी प्रकार अपने सांसारिक कर्त्तव्यों को पूर्ण करने के साथ-साथ हमें पूर्णरूपेण सचेत रहना होगा और ध्यान रखना होगा कि आंतरिक भ्रूण को कब पोषण की आवश्यकता है और कब अनपेक्षित स्थितियों से इसकी सुरक्षा की जानी है। प्रकृति का यह नियम सबके लिए समान है। यह नियम पूर्णरूप से सरल प्रयत्नरहित कर्मयुक्त तथा पूर्ण आत्मसमर्पण वाला है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब एक बीज फ ूटता है तो वह कितना आनन्ददायक होता है नई-नई ताजी कोपलें शाखाएँ फल-फूल-उगने का प्रत्येक चरण आनन्द से परिपूर्ण होता है। वह पूरी जागरूकता से अपनी शक्ति प्रदर्शित करता है। निष्कर्षत: ईश्वर ने हम सबको भी इसलिए बनाया है और अपनी दया व करुणा से फलीभूत किया है ताकि ईश्वर की ब्रह्माण्डीय योजना के अनुरूप हम सभी पूर्णता प्राप्त करें।
हे मानव !
पूछ अपने आपसे अपनी ही सच्चाई
वहीं तो है सारी की सारी खुदाई
अब समय नहीं रहा बात घुमाने का
बिना बात अपने को बरगलाने का
जानकर अपना सत्य छाँटो अंधकार
और करो प्रेम और प्रकाश का प्रसार
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ