दक्षिण भारत यात्रा के अंश : भाग-2
मन में बहुत उमंग थी श्री माँ और श्री अरविन्द जी की तपोभूमि व कर्मस्थली पांडुचेरी को दुबारा सोलह साल बाद देखने की। क्योंकि उनके सपनों की नगरी ओरोविलियन की भी बहुत चर्चा सुनाई देती रही है। समाधि दर्शन से जो अनुभूति सोलह साल पहले हुई थी उसकी याद भी पुलक जगा रही थी ।
पर ओरोविलयन पहुँचने पर वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं पाया जो श्री माँ का विज़न था। कुछ अजीब-सा असंदिग्ध-सा वातावरण। मन बहुत घबरा-सा गया। फौरन ही बाहर निकलकर पांडुचेरी जो अब पुण्डुचेरी हो गया उसका रास्ता पकड़ा। वहाँ पहुँचकर समाधि दर्शन किया। दोनों समाधियों पर फूल सज्जा तो मनमोहक थी पर वहाँ भी वो पहले जैसी भावानुभूति नहीं हुई। बार-बार यही ध्यान आता रहा कि जो श्री माँ और श्री अरविन्द का सपना और दूरदर्शिता है उस पर काम नहीं हो रहा। एक उदासीनता सी छाई थी। वहाँ सब दिशाहीन, भ्रमित व मशीनी भाव में उन्हें याद करने की रीति-सी निभा तो रहे हैं पर व्यापारिकता की प्रमुखता ही दिखाई देती रही।
एक तो जो एक आत्मा व दो शरीर थे एक-दूसरे के बिना अपूर्ण उन्हें ही बाँट दिया गया है। एक मदर माँ का आश्रम है, दूसरा अरविन्दो सोसाइटी, माँ के आश्रम के बाद सोसाइटी ढूँढ़ने में थोड़ा समय लगा। वहाँ भी गए जो अभी-अभी बनी है रहने के लिए आदि कमरे भी हैं पर लगा सब कुछ बिखर सा गया है। इतने महान विचारक युगदृष्टा महर्षि के विचारों के अनुसार वहाँ कुछ भी कर्म नहीं हो रहा। केवल नामों का व उनके लेखों का प्रचार और व्यापार हो रहा है। मन में कुछ बुझ सा गया। बस यही ध्यान में आता रहा कि अभी बहुत काम करना बाकी है उनकी बताई बातों व उनके दिखाए मार्ग की सत्यता लोगों तक सही रूप में पहुँचाने के लिए।
वैसे भी यह कटु सत्य है कि युगदृष्टा पुरुष या पौरुषी जो भी युगचेतना से संयुक्त होता है, जब तक वह जीवित होता है तभी तक उसके आभामंडल की प्रकाशित किरणें वो ऊर्जा-उर्मियाँ विस्तीर्ण करने में सक्षम होती हैं, जो मन-मस्तिष्क व आत्मा को प्रभावित कर रूपान्तरण को प्रेरित करें। उनके शरीर त्यागने के बाद उनके व्यक्तित्व व लिखे वचनों को ही महिमामंडित कर बखानने प्रवचन करने व्याख्यान देने विवेचना करने में ही समय व्यतीत कर दिया जाता है उनको जीने का उद्यम या पुरुषार्थ तो शायद कोई विरला ही कर पाता है।
इस महानता बखान, स्तुतिगान और महिमामंडिता को भी व्यापार बना दिया जाता है। महान आत्माओं के धरती छोड़कर जाने के बाद उनकी लिखी वाणी के कैसटों और पुस्तकों की बिक्री और अधिक से अधिक कमाई के साधनों की तरफ ही सारी ऊर्जा और बुद्धि लगाई जाती है। आश्रम बनाओ सोसाइटी बनाओ मीटिंगें-सेमीनार आदि करो और इन्हीं के रखरखाव व व्यवस्था में ही ध्यान रहने लगता है। यही सब करते-करते सारी कमियाँ विशेषकर अहम् व कर्ताभाव, जिसको सबसे अधिक नकारा प्रत्येक महान आत्मा ने, सभी जगह व्याप्त हो जाता है। विशेषकर पद-पदवी सम्भालकर बैठे लोगों में। सारा का सारा वातावरण ओछी राजनीति से भर जाता है।
मन बहुत अचकचा सा हो गया। क्या दूरदृष्टि थी और क्या उत्कृष्ट मानव बनाने के लिए सनातन व आन्तरिक योग की देन थी श्री माँ और श्री अरविन्द की, पर क्या स्वरूप बना दिया गया है। बस प्रार्थना ही की जा सकती है और स्थिति से एक बहुत बड़ा पाठ समझ आया कि यदि अपना संदेश सही रूप में विश्व को देना है तो जीते जी कुछ सही मानव उदाहरण स्वरूप अवश्य तैयार कर देने होंगे जो तुम्हारे मन वाले हों।
जैसे समय युग की मांग के अनुसार मानव अवश्य तैयार कर ही लेता है जो उसके मन वाला होता है। यही प्रणाम की प्रेरणा का भी आधार है। सबको सत्य प्रेम व कर्म का सही रूप बताकर, सिखाकर प्रकाश फैलाना है। जीवन की दी हुई सभी परीक्षाओं से तपस्याओं की तरह उबरकर, विवेक की ज्योति जलाकर, सही मानव-सत्य मानव होकर, मानवता का धर्म निबाहकर बताना है।
मानव मानवता और ब्रह्माण्डीय व्यवस्था का शाश्वत सनातन प्राकृतिक नियम, बस इतना-सा ही तो विधान है सत्य धर्म का। अपने परम स्रोत, Supreme source, और प्रकृति से जुड़कर अपने अस्तित्व का सच जानकर रूपान्तरित होकर मानव जीवन सार्थक करना है। रोज नया होकर उगना खिलना आनन्दमय होकर आनन्द बिखेरना।
यही है प्रणाम के ‘माना मार्ग’ का मर्म
सभी मनीषियों, चिन्तकों और
युगदृष्टाओं के मन वाला कर्म
यही है सत्य !!
यहीं है सत्य !!
- प्रणाम मीना ऊँ