हे मानव !
आत्म-मंथन कर महामंथन प्रारम्भ हो चुका है। सम्पूर्ण सृष्टि के महासागर में भयंकर उथल-पुथल मची है। मानव के रूपान्तरण का समय आ ही पहुँचा है। सच और झूठ की खोज में सदियों से भटक-भटक कर अब मानव इतना तो समझ ही गया है कि सत्य को उसे अपना अंतर्मन मथ-मथ कर ही खोजना है।
सत्य की वास्तविकता तक पहुँचना है। जो प्रभुता का बीज तेरे अंदर सोया हुआ है जिसमें प्रभु होने की संभावना छुपी है उसे ही सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश की उर्वरा शक्ति देकर प्रस्फुटित करना है। इसके लिए बहु प्रचारित शब्दों सत्य प्रेम कर्म ज्ञान भक्ति मोक्ष निर्वाण आदि-आदि का सच्चा अर्थ सही संदर्भ में समझना होगा। विशेषकर सत्य प्रेम व कर्म का सही अर्थ समझकर साधना करनी होगी, अपने आप पर सत्यता से कर्म करना होगा। यही है समुद्र मंथन की प्रतीकात्मक कथा का सार तत्व।
जब अरणि-सूखी लकड़ियों का घर्षण तीव्र वेग से किया जाता है तो अग्नि उत्पन्न होती है। इसी अग्नि का संयमित प्रयोग हवन की सर्वकल्याणकारी अग्नि का रूप धर अनुचित असंयमित उच्छृंखलता को जला डालती है। यह शरीर अरणि है। सत्यमयी कर्मठता व अथक पुरुषार्थ से कर्म करके इसे घिसना, रगड़ना होगा तभी आत्मबल की वो अग्नि प्रस्फुटित होगी जो समस्त अपूर्णता को भस्म कर देगी।
सदियों से मानव के कोषाणुओं में जो अज्ञान का अंधकार समा गया है, अंतर में आसुरी प्रवृत्तियाँ तांडव कर रही हैं उनके निराकरण का समय आ पहुँचा है। अब अगर स्वस्थ सौन्दर्यमय प्रेममय सत्यम् शिवम् सुन्दरम् वैश्विक वातावरण का अमृत पीना है तो आत्म-समुद्र-मंथन की महान प्रक्रिया से गुज़रना ही होगा। समुद्र मंथन के समय जिस प्रकार सुर-असुर दोनों ने ही महान पराक्रम किया, आज भी अच्छे-बुरे सभी मानवों को अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग मानवता के कल्याण हेतु इस महा मंथन में करना ही होगा।
आज जो चारों ओर इतना किताबी ज्ञान, शब्दों का महाभंडार और गुरु स्वामियों का अंबार लगा है उसकी प्रतीकात्मकता समझ कर्म करने की बेला आ पहुँची है। कब तक प्रवचन कथाएँ योग कुंडलिनी वास्तु ज्योतिष आदि-आदि की बातें सुन-सुन कर अपना ज्ञान, केवल कोरा ज्ञान बढ़ा-बढ़ा कर सोते रहोगे। बहुत हो चुका ज्ञान-ध्यान। अब समझ ले, ज्ञान दिया जाता है कि उसी ज्ञानानुसार कर्म करना, उससे विवेक जागृत कर उन्नत होना, न कि इसलिए कि ज्ञान में रमकर और अधिक अहंकारी हो जाओ और सारे ज्ञान का उपयोग अपने ही स्वार्थों के लिए करो।
हे मानव ! चारों ओर पूर्णता और अपूर्णता का अथाह समुद्र है। मंदार पर्वत की मथनी, तेरा शारीरिक अस्तित्व, इसे ही तो घुमाना है। वासुकि नाग घुमाने वाली रस्सी है यही तो है वह कुंडलिनी ऊर्जा शक्ति जिसे जगाकर ऊर्ध्वगामी कर अपनी सत्य क्षमताओं को जानकर अपने को ही मथना है न कि दूसरों को अपने हिसाब से चलाना है। जब ध्यान साधना की शक्ति से अपने को निरन्तर मथेगा तो पहले तेरे अंदर का विष ही बाहर आएगा। अपनी अपूर्णता, दूषित विचार, आत्मा के भार और शारीरिक विकार ही दिखाई देंगे वो इतने प्रबल होंगे कि तू आत्मग्लानि से ही बिखर जाएगा, नष्ट हो जाएगा।
पर प्रभु ने बड़ा सुंदर विधान किया है। यदि तू परम् शक्तिवान सत्ता के समर्पण में पूर्णतया स्थिर है, पूर्ण आस्थावान है तो अवश्य ही वह विष तेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा क्योंकि शाश्वत सत्ता की सटीक व्यवस्था के प्रतीक शिव उसे अपने में समाहित कर लेंगे। यही होती है कालचक्र की गति जिसकी प्रतीकात्मकता कभी भी व्यर्थ नहीं होती, केवल समय के साथ-साथ परिभाषाएँ और संदर्भ बदल जाते हैं कर्म वही रहता है ‘मंथन’- सतयुग त्रेतायुग द्वापरयुग कलियुग सबमें। सतयुग में कुपात्र-सुपात्र परीक्षण हेतु; त्रेतायुग में पाप-पुण्य, आत्मबल परीक्षण हेतु; द्वापर में धर्म-अधर्म शक्ति परीक्षण हेतु और कलियुग में झूठ-सच, सत्य-असत्य परीक्षण हेतु ध्यान चिंतन द्वारा ‘मंथन’। समय की गति को आगे बढ़ाने हेतु सृष्टि के सर्वांगीण विकास व उत्थान हेतु ‘मंथन’ ही अभीष्ट है।
तो हे मानव अपने अन्त:करण को मथना है। ध्यान-चिन्तन व मनन द्वारा अपना सच जान अपने को पहचानकर सृष्टि की सम्पूर्ण, सटीक और सत्यमम् शिवम् सुन्दरम् सनातन संस्कृति की स्थापना हेतु सुपात्र बन।
यही है तेरा सतकर्म।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ